________________
श्रावकाचार-संग्रह
इम जाणिय भव्य जीव, सर्व आरंभ दूरे करो ए । संतोष घरी मन दिव्य प्रतिमा आठमी अनुसरो ए ॥७२
नवमी कहुँ प्रतिमा, परिग्रह संख्या कीजिये ए । जिम उपजे बहु पुण्य. संतोषे लीजिये ए ॥७३ संग संख्या दशविध, तेह भेद पेहलां कह्या ए ।
९२
मर्याद प्रसिद्ध, थूल पणें तम्हो सर दहो ए ॥ ७४ वली वली सुं कहुँ मित्र, सर्वथा परिग्रह परिहरो ए । निज मन करिय पवित्र, सन्तोष सुख सदा धरो ए ॥७५ जिम जिम छांडे संग, तिम तिमवाप ते निस्तरे ए । देव- रंभा घरे रंग, मुक्ति नारी वेगे वरि ए ॥७६ मन वयण निज अंग, कृत कारित अनुमोदना ए । नव भेदे छांडो संग, नवमी चैत्य गुण नोदन ए ॥७७
दोहा
परिग्रह सब जे परिहरो, सन्तोष धरि निज मन्न । मन वच काया वश करो, जिम होइ निमल पुण्य ॥ १ दर्शन चैत्य आदें करी, जे पालें नव शुभ स्थान ।
मध्यम श्रावक ते जाणिये, सदाचारी गुण निधान ॥ २
इणि परे नव प्रतिमा धरे, संवरि दुर्व्यापार | सोलमें स्वर्गे ते ऊपजें, सौख्य तणों आधार ॥३ अनुदिन जे जन पालसी, मध्य भेद श्रावकाचार । जिनसेवक पदजो कहे, ते तिरसी संसार ॥४
Jain Education International
ढाल गुणराजनी
नवमीए प्रतिमा भेद, वेदपणें इम उच्चरी ए ।
अनुमणां ए निवृत्त नाम, ठाम दशमी चैत्य वरी ए ॥१ घर हाट ए दुर्व्यापार, हिंसा पाप दूर करो ए । गृहस्थ ए षट् कर्मधार, ते अनुमोदना परिहरो ए ॥ २ निज पर ए सजन परिवार; विवाह काज न कीजिइ ए । जेह थी ए पाप व्यापार, अणु मन चित्त न दीजिइ ए ॥ ३ अनुमोदना थी उपजे पाप, पापें दुःख घणु होड़ ए । शीयाल सावज ए मोन संताप, कष्ट सहे नरक तर्णों ए ॥४ सोंपिये ए घर तणों भार, निज सहोदरे अथवा पुत्र ए । आपण थइए निश्चिन्त, भालवण देई घर सूत्र ए ॥ ५ जोग्य जाणि ए निज पुत्र जेह, ते घर भार ज परिहरि ए । मूढ जीव ए मोहे तेह, पापें अधोगति अवतरे ए ॥ ६ बहुभार ए जिम डूबे नाव, सर्व वस्तु विनाशक ए । तिम जीव ए पाप प्रभाव, संसार-सागर वासक ए ॥७ इम जाणि ए छोड़ो घर भार, निज पुत्र पद आपीइ ए । दूमेह ए करे परिहार, वैराग्यें मन व्यापोइ ए ॥८
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org