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पदम-कृत श्रावकाचार
शील महिमा जस गुण, एक जीमे किम वर्णव्युए। देइ सोलमो स्वर्ग, अनुक्रमे ते सिद्ध थाइ ए॥५४ मन वच काया आणी ठामि, दृढ़, ब्रह्मचर्य पालीइ ए। प्रतिमा सातमी ते नाम, पंच अतीचार टालीइ ए ॥५५ नारी अंग निरीक्षण, नारी कथा न वि कीजिए। पूर्व मुक्त अनुस्मरण, कामकारी रस न लीजिइ ए ॥५६ निज सरीर सिणगार, शील तणां त्यजो दूषण ए। अठार सहस्र प्रकार, पालो शील गुण भूषण ए ॥५७ प्रतिमा आठमी कहँ भेद, एक मना मित्र सांभलो ए। सर्व आरंभ निक्षेद, आरति निवृत्ति नाम निर्मलो ए॥५८ पृथ्वी अप तेज वाय, चार थावर सत्त्व कही ए। सर्व वनस्पति काय, भूत सत्ता जीव सही ए॥५९ बे इन्द्री ते इन्द्री चौ इन्द्री, विकलत्रय प्राणि एह ए। असंज्ञी संज्ञी पंचेन्द्री जीव, जाति संज्ञा तेह ए॥६० सत्त्व भूत प्राणी जीव, थावर त्रस काय देखोइ ए। मन वच काय अतिचार, यत्न सहित दया पेखिये ए॥६१ छांडि आरंभ षट्कर्म, झूठ चोरी मैथुन त्यजो ए। परिग्रह थी होइ कर्म, बहु तृष्णा पाप वृक्ष ए ॥६२ छोड़ो दुर्व्यापार, हिंसा काज पाप कारी ए। क्रोध मान कपट असार, लोभं इन्द्री क्षोभ धारी ए॥६३ कुविणज थी रुडु विष, एक भव दुःख ते देइ ए। पाप देइ बहु दुःख, अनेक जन्म कष्ट वेइ ए ॥६४ कुव्यापारे धन्न उपाय, पाप फल एक लो लहि ए। धन स्वजन सहु खाय, नरक कष्ट एक लो सहि ए ॥६५ तो किम कीजे ते पाप, दुर्व्यापार दूरे करी ए। उगारीइ निज आप, के किहने न वि उधरो ए ॥६६ जिम जिम छोडि पापारंभ, तिम तिम दुष्कर्म निर्झरि ए। आलिंगन देइ देव रंभ, मुक्ति नारी वेगे वरि ए॥६७ से ने खणों पृथिवी काय, नीर अग्नि न विराधिये ए॥ से में धालो बहु वाय, तरु त्रस जीव न विराधिये ए॥६८ वापी कप तडाग नदी वेहला न खणाविये ए। धर हाट आरंभ त्याग, गढ़ गोपुर न चिणाविये ए॥६९ पर विवाह उपदेश, विषय आरंभ न कराविये ए। पंच पातक गणि वेश, मन इन्द्री निवारिये ए॥७० आरंभ थी जीव हिंस, हिंसा थी पाप विस्तरे ए। पापे दुर्गति वास, विविध दुःख जीव अनुसरे ए॥७१
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