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श्रावकाचार-संग्रह
बेसरी छन्द क्षमा करौ हमसों सब जीवा, सबसों हमरी क्षमा सदोवा । सर्व भूत हैं मित्र हमारे, वैर-भाव सबहीसों टारे ॥९६ सदा अकेलो में अविनाशी, ज्ञान-सुदर्शनरूप प्रकाशी। और सकल हैं जो परभावा, ते सब मोतें भिन्न लखावा ॥९७ शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अखंडा, गुण अनन्तरूपी परचंडा । कर्मबन्धते रुलै अनादि, भटको भव-वन माहिं जु वादि ॥९८ जब देखे अपनों निजरूपा, तब होवो निर्वाण-सरूपा । या संसार असार मंझारे, एक न सुखकी ठौर करारे ।।९९ यहै भावना नित भावंतो, लहें आपनों भाव अनंतो। अब सूनि पोसहको विधि भाई, जो दसमो व्रत है सुखदाई ॥९०० दूजा शिक्षाव्रत अति उत्तम, याहि धरें तेई जु नरोत्तम । न्हावन लेपन भूषन नारो,-संगति गंध धूप नहिं कारी ॥१ दीपादिक उद्योत न होई, जानहु पोसहकी विधि सोई । एक मासमें चउ उपवासा, द्वे अष्टामि द्वै चउदसि भासा ॥२ षोड़श पहर धारनो पोसा, विधि पर्वके निर्मल निर्दोषा। सामायिकको सो जु अवस्था, षोडश पहर धारनी स्वस्था ॥३ पोसह करि निश्चल सामायिक, होवै यह भासे जगनायक । पोसह सामायिकको जोई, पोसह नाम कहावै सोई ।।४ जे शठ चउ उपवास न धारें, ते पशु-तुल्य मनुष-भव हारें। बहुत करे तो बहुत भला है, पोसा तुल्य न और कला है ॥५ चउ टारै चउगतिके माहीं, भरमें यामें संशय नाहीं।
उपवासा पखवारेमें, इह आज्ञा जिनमत भारेमें ।।६ व्रतकी रीति सुनों मन लाये, जाकरि चेतन तत्त्व लखाये। सप्तमि तेरसि धारन धारै, करि जिनपूजा पातक टारै ॥७ एकभुक्ति करि दो पहरातें, तजि आरम्भ रहै एकांते । नहिं ममता देहादिक सेती, धरि समता बहु गुणहि समेती ।।८ चउ अहार चउ विकथा टार, चउ कषाय तजि समता धारै। धरमो ध्यानारूढमती सो, जगत उदास शुद्धवरती सो ॥९ स्त्री पशु षंढ बालकी संगति, तजि करि उरमें धारै सन्मति । जिनमन्दिर अथवा वन उपवन, तथा मसानभूमिमें इक तन ॥१० अथवा और ठौर एकान्ता, भजे एक चिद्रूप महंता । सर्व पाप जोगनितें न्यारा, सर्व भोग तजि पोसह धारा ।।११ मन वच काय गुप्ति धरि ज्ञानी, परमातम सुमरे निरमानो। या विधि धारण दिन करि पूरा, संध्या करै साँझकी सूरा ॥१२
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