________________
प्रस्तावना
पदम कविका परिचय और समय प्रस्तुत संग्रहमें सर्वप्रथम हिन्दी छन्दोबद्ध श्रावकाचार श्रीपदम-कविकृत संग्रहीत है। इन्होंने इसके अन्तमें जो प्रशस्ति दी है, उसके अनुसार इस श्रावकाचारकी रचना सम्वत् १६१५ के माघ सुदी पंचमी शक्रवारको पूर्ण हुई है यथा
संवत् संख्या जिनभावना", आनन्दा, संवच्छर संख्या प्रमाद"तो। मास माहु सोहामणो आनन्द,. भाइ वा सुत मर्याद तो॥६०॥ तिथि संख्या चारित्र मेदे, आनन्दा, रस संख्या शुभवार तो।
शुभ नक्षत्रे शुभ योगे, आनन्दा, कीयो मैं श्रावकाचार तो ॥६१।। (पृष्ठ ११०) इन्होंने अपनी जो गुरु-परम्परा दी है उसके अनुसार ईडर शाखाके भट्टारक श्री पद्मनन्दी तत्पट्टे भ० सकलकीर्ति हुए जिनका समय [संवत् १४५०-१५१० तक] का था उनके पट्ट पर भ. भुवनकीर्ति बैठे जिनका समय [संवत् १५०८-१५२७] तक है। उनके पट्ट पर भट्टारक ज्ञानभूषण बटे जिनका समय ( सं० १५३४-१५६० ) तकका है उनके पट्टपर भ० विजयकीर्ति बैठे जिनका समय (सं०१५५७-१५६८) तकका है। उनके पट्टपर भ० शुभचन्द्र बैठे जिनका समय (सं० १५७३१६१३) तकका है इनके शिष्य भ० कुमुदचन्द्र हुए जिनको पदम कविने अपने गुरु रूपसे नमस्कार किया है।
पदम कविने अपनेको भ० शुभचन्द्रकी आम्नायका उल्लेख किया है, विनयचन्द्रको आगम गुरु और कर्मश्री ब्रह्मको अध्यात्म गुरु लिखा है। हीर ब्रह्मन्द्रका शिक्षा गुरुके रूपमें उल्लेख किया है। भ० शुभचन्द्रका अन्तिम समय सं० १६१३ तकका उल्लेख ऊपर किया गया है उनके शिष्य कुमुदचन्द्रका गुरु रूपसे उल्लेख कर प्रस्तुत श्रावकाचारकी रचना सं० १६१५ में हुई है यह उक्त भ० पट्टावलीसे भी सिद्ध होता है । (पृ० १०७)
पदम कविने जिन आचार्योंके श्रावकाचारोंके आधारपर अपने श्रावकाचारको रचना की है उसमें स्वामी समन्तभद्रका रत्नकरण्ड, वसुनन्दिका धावकाचार, पं० आशाधरका सागारधर्मामृत, और सकलकीतिका श्रावकाचार प्रमुख हैं। फिर भी श्रावक की वेपन क्रियाओंका वर्णन इन्होंने विस्तारके साथ किया है, इन्होंने श्रावकाचारको रत्नदीप और वेपन क्रियाओंको चिन्तामणि रत्न कहा है । यथा
श्रावकाचार ते रत्नदीप आनन्दा, ओपन क्रिया चिन्तारल तो।
सुगुरु रत्न मूल्य नहीं, आनन्दा, दया करो तस जल तो ॥४४॥ (पृ० १०९) पदम कविने अपने श्रावकाचारका ग्रन्थ परिमाण २७५० श्लोक प्रमाण कहा है और इसे छब्बीस प्रकारके रासोंमें रचा है । यथा
छब्बीस भेद भासे भण्यों आनन्दा, श्लोक शत सत्तावीस तो। पंचास अधिक सही आनन्दा, ग्रन्थ-संख्या अशेष तो ॥५८।। (पृ० ११०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org