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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
१२९ अथवा चक्री धरणेश, देव नपहं हो श्रेणिक बेश । इन पदवी कर कहा बड़ाई, संसार तणा सुखदाई ॥७४ यातें तीर्थंकर होई, संदेह न आणों कोई। तातें सुनिये भवि जीव, करुणा चित धार सदीव ॥७५
अथ सत्य अणुवत कथन । चौपाई झूठ थूल वच ना मुख कहै, संकट पड़े मौन कों गहै। त्यागें असत्य सर्वथा नहीं, यातें लघु खिर है मुखि कहीं ॥७६ जीवदया पलिहै नहिं तदा, झूठ बचन बोले है जदा। वह असत्य सांच ही जांण, जहाँ जीव के बचि हैं प्राण ॥७७
छन्द नाराय। सदीव सत्य भावते अलंध्यते न तास को, पएवि वाच-सिद्धि चार नाद होय जासको। समृद्धि रिद्धि वृद्धि तीन लोक की लहै इकों, त्रिया जु मोक्ष गेह मांहि तिष्ठ है सुजायकों ॥७८
दोहा वचन न जाको ठीक कछु, अति लवार मति क्रूर । तातें फल अति कटुक सुन, महापाप को भूर ॥७९
अडिल्ल छन्द नष्ट जीभ बच परतें निंदित मानिए, गर्दभ ऊँट बिलाव काक सुर जानिए। जड़ विवेक ते रहित मूकता को धरें. झूठ वचन ते मनुज इते दुख अनुसरै ॥८०
दोहा
सांच झूठ फल है जिसो, तिसो कह्यो भगवान । सत्य कहो झूठहि तजो, इहै सीख मन आन ॥८१
अथ सत्य वचन अतीचार । छन्द चाल नित झुठ वचन बहु भाषे, अवरनि उपदेश जु आपै । परगुप्त बात जो थाही, ताकों ते प्रगट कराहीं ॥८२ पत्री झूठी नित मांडे, केलवणीं हिय नहीं छांड़े । लेखी पुनि मांडै झूठी, खतहू लिख है जु अपूठी ॥८३ तासों कर्म जु रूठो, अघ अधिक महा करि तूठो। को धरि हैं धरो कड़ि आई, जासों जो मुकरि सुजाई ।।८४ साक्षी दस पांच बुलावे, बस झूठो करि ठहरावै । इस पाप तणो नहि पारा, कहिए कहुंलो निरधारा ॥८५ दुहुँ पुरुष जुदे बतलावै, तिन मिलती हिए अणावै । दुहं सुख आकार लखाई, परसों सो प्रगट कराई ॥८६ दूखै उनके परिणाम, अघ-दायक है इक काम । लख अतिचार दुई तीन. व्रत सत्य तणा परवीन ॥८७
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