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श्रावकाचार-संग्रह
एक दिवस ते घोष्ठि, व्यापार काजि ते संचर्यो हेलि। निज वनि कीयो प्रस्थान, सेवक जिन बहु परिवर्यो हेलि ॥२१ व्यापार तणे ते काज, घरि जन सहु व्यग्र देखीयो हेलि । मध्य रात्रं ब्रह्मचार, रत्न हरण समय पेखीयो हेलि ॥२२ अमोलिक लेई रत्न, सन्नि-सन्नि ब्रह्म चालीयो हेलि। तेज देखि कोट वाल चोर जाणी ते झालीयो हेलि ॥२३ नोसरीन सक्यो ते दुष्ट श्रष्ठ पासे ते आवीयो हेलि। रक्ष-रक्ष तूं नाथ, हाथ जोड़ी शरण भावीयो हेलि ॥२४ तव बोल्या ते साह, कोटवाल तम्हें सांभलो हेलि। तम्हें कोउं अपराध, साधु संताप्यो अह्म तणो हेलि ॥२५ हुं जाऊं छु व्यापार, सार रत्न अण्याव्यो अझो हेलि। मुझ तणुं सद्गुरु कांई, संताप्यो घणो तम्हें हेलि ॥र६ कोटवाल कहे सुणो देव, अम्हें तो गुरु जाण्यों नहीं हेलि । क्षमा करो अम्ह साथ, इम कही ते गयो सही हेलि ॥२७ निज रत्न लेइ साह, ब्रह्म एकान्त तिणे तेडीयो हेलि।
कवण करम तें जोडीयों रे-रे पापी दष्ट. हेलि॥२८ तं अज्ञानी दुष्ट कपट करी मुझ बंचीयो हेलि । ब्रह्मचारी लेय रूप, पाप करम तें संचीयो हेलि ॥२९
पामी जिन सासन्न, दुर्जन ने माया करे हेलि । ते बाहि पर आप, पाप भारें भव किम तरे होल ॥३० निर्धान्त कीयो ते चौरि, जिन शासन थी निकालियो हेलि । बाहा माछादी दोष, उपगृहन अंग साह पालियो हेलि ॥३१ जिनेन्द्र भक्त शुभ साह, उच्छाह जिन शासन करी हेलि। ते पाभ्यो शुभ स्थान. उपगहन अंग धर्यों हेलि ॥३२ इम जाणि भव्य जीव, दोष म बोलो पर तणों हेलि। ढाकी पर-अवगुण, गुण ग्रहो ते पर गुण धणों हेलि ॥३३
अथ स्थितिकरण अंग एक कथा रही इह, अवर वृत्तान्त हवे कहुँ हेलि। संस्थितिकरण जे अंग, श्री जिनशासनमें कह्यो हेलि ॥३४ सागरी अणगारी, धर्मथकी चलतो देखी हेलि । जिम किम रहे निज ठाम, स्थितिकरण ते गुण देखी हेलि ॥३५ मगध देश मझार, राजग्रही नयरी भलो हेलि । श्रेणिकनामें भूपाल, चेलणा राणी महासती हेलि ॥३६ धर्म अर्थ वली काम, त्रण पदारथ साधक हेलि । पाले समकित सार, जिन शासन आराधक हेलि ॥३७ तस बिहु जायो पुत्र, वारिषेण नामें रूअडु हेलि। रूप कला गणवन्त, संत सदाचार ने भलो हेलि ॥३८
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