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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष सो मिथ्यात को मूल, त्रिविधि तजी तिन सुखद लखि । होय धरम अनुकूल, ताते भव-भव सुख लहै ॥२
सर्वया ३१ चांबड़ा बराही खेतपाल दुरगा भवानी पंथवार देव इंट थापना बखानिये । सत्तनामी नाभिंगं ललितदास पंथी आदि नाना परकार भव प्रगट जानिये ॥ झाझाकलवानी डाल भेव दीप वो मुपा की मंत्र ते उतारै भूत डाकिनी प्रमानिये । एतो विपरीत घोर थापना मिथ्यात जोर अहो जैनी इन्हें कष्ट आए हू न मानिये ॥३
सोरठा पीपर तुरसी जान, एकेंद्री परजाय प्रति । इन्हें देव पद ठान, पूजै मिथ्या दृष्टि जे ॥४
सर्वया ख्वाजे मोर साह अजमेर जाकी जाति बोले पुत्र के गले में बांधी घालै चाम पाटकी । मेरे सुत जीवं नाहिं याते तुम पाय अहो सात वर्ष भए नीत पायनते बाटकी। जलालदीय पंच पीर और बड़ी परिरनै जाय करे चूरिमो कुबुद्धि जिनराटकी। फातिहा पढ़वानैं जिंदा दरवेश को जिमा इह कलिकाल रीति मिथ्यात के थाट की ॥५
दोहा तुरक आन के देब को, मानत नाहिं लमार । हिन्दू जैनी मूढमती, सेवै बारम्बार ॥६ या समान मिथ्यात जग, और नहीं है कोय । दुखदायक लखि त्यागिहै, महाविवेकी सोय ।।७
सवैया ३१ भादों बदि नौमी दिन गारिको बनाय घोड़ो तापरि चढ़ावै चहुँ बाण गोगो नाम हो । बावड़ी में मेलि कुम्भकारि तिय कर धर लोभते पुजावत फिर है धाम धाम ही ॥ ताको सुखदाई जानि मूढमती मानि ठानि देत दान पाय नमि सेवे गाम गाम ही । मिथ्यात्व की रीति एह करै निरबुद्धी जेह कुगति लहै है जेह बांका दुख पावही ॥८ भादों बदि बारस दिवस पूजै बछ गाय राति को भिजोवे नाज लाहण के काम ही। निकसैं अंकूरा तिनि मांहिं जे निगोदरासि हरष अधिक बाँ, ठाम ठामही।। जीवनि को नाश होय मानत तिवहार लोय कैसे सुख पावे सोय पशू पूजे नाम ही। महा अविचारी मिथ्याबुद्धीचारी नर नारी ऐसी क्रिया करे श्वभ्र लहे दुख धाम ही॥९
बोहा
हलद माहिं रंग सूत को, गाज लेत है तेह । सुणे कहानी खोलते. रोट करत है तेह ॥१. धोक देय पूजे तिसे, कहि सुखदाई एह । नाम ठाम नहिं देवको, भव भव में दुख देह ॥११
नारी जो गर्भ धरे है, बालक परसूत करे है। जनमें बालक जिहि बार, तसु औतिह लेत उतार ॥१२
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