SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० श्रावकाचार-संग्रह लंकामत प्रगटयो अति घोर, पाप रूप जाको नहिं ओर । तिन तें ढूंढ़ा मत थाप्यो, काल दोष गाढ़ो ह वाढयो ॥१८ छन्द बाल पापी नहिं प्रतिमा माने, ताकी अति निन्दा ठाने । जिनगेह करन की बात, तिनको नहिं मूल सुहात ॥११ जात्रा करवो न बखाने, पूजा करिवो अवगाने । जिन-बिम्ब प्रतिष्ठा भारी, करिवो नहिं कहे जगारी ॥२० जिन भाष्यो तिम अनुसारी, रचिया मुनि ग्रन्थ विचारी। तिनकों निंदै अधिकाई, गौतम बच ए न कहाई ॥२१ ऐसे निरबुद्धी भाषे, कलपित झूठे श्रुत आषे । सबको विपरीत गहावे, निज षोटे मारग लावे ॥२२ जिय उत्पत्ति मेद न जाने, समकितहू को न पिछाने । गुरु देव शास्त्र नहिं ठीक, किरिया अति चले अलीक ॥२३ निजको माने नहिं गुणथान, छट्रो मुनि पद सरधान ।। जामें मुनि गुण नहिं एक, मिथ्या निज मति की टेक ॥२४ मुनि नगन रूप को धारै, चारित तेरह विधि पारे । षटकाय दयावत राखे, नित वचन सत्य जुत भाखै ॥२५ आदान अदत्तहि टारे, सीलांग भेद विधि पारे। त्यागे परिग्रह चौवीस, गोपें तिहुँ गुपति मुनीस ॥२६ ईर्यापथ सोधत चाले, हित मित भाषाहि संभाले। श्रावक धरि असन जु होई, विधि जोग जेम निपजोई ॥२७ भोजन के दोष छियाली, निपजावे श्रावक ठाली। चरिया को मुनिवर आही, श्रावक तिन ले पडिगाही ॥२८ मुनि अंतराय चालीस, ऊपर छह ठालीज तीस । पावे तो लेहि अहार, इम एषणा समिति विचार ॥२९ आदान निक्षेपण धारे, पंचम समिति बिध पारे। इम चारित तेरह भाषे, जैसे जिन-वानी आषे ॥३० गुण मूल अट्ठाइस धारी, उत्तर गुण लख असि चारी। गिरि शिखर कंदरा थान, निरजन धरिय सुध्यान ॥३१ ग्रीषम गिरि सिर रवि-ताप, सिलाक परि ठाढ़े आप । वरषा रितु तरु-तल ठाढ़े, उपसर्ग सहे अति गाड़े ॥३२ हिम नदी तलाब नजीक, मनि सहहि परीषह ठोक । निज बातम सों लव लागी, पर वस्तु सकल परित्यागी ॥३३ पूजक निंदक सम जाके, तण कनक समान जु ताके। इत्यादिक मुनि गुणधार, कहतें लहिये नहिं पार ॥३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy