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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष प्राणी न परे जिह मांहीं, सो तो घृत सोधि कहाहीं। घृत सो निज घर निपजइये, घृत धरि सो व्रतमें पइये ॥३ निज घर घृत विधि न मिलाही, व्रत धरि तब लूखी खाहीं। अरु धिरत सोधिको खाव, व्रतमें बह हरी मंगावै ॥४ इह सोधि न कहिये भाई, जामें करुणा न पलाही। करुणा-जुत कारज नीको, सुखदाई भवि सब ही को॥५
दोहा घिरत सोधिका की सुविधि, कही यथारथ सार। अच्छी जाणि गहीजिये, बुरी तजहु निरधार ॥६
चौपाई अब कछु क्रिया-हीन अति जोर, प्रगट्यो महा मिथ्यात अघोर। श्रावक सों कबहूँ नहिं करें, आनमती हरषित विस्तरें ॥७ जैनधर्म कुल-केरे जीव, करे क्रिया जो हीण सदोव । तिन के संचय अघ की जान, कहै तासकी चाल बखाण ॥८ तिहको तजे विवेकी जीव, करवे तें भव भ्रमें अतीव । अब सुनियो बुधिवंत विचार, क्रिया हीन वरणन विस्तार ॥९
इति सोधिका घृत-मर्यादा कथन सम्पूर्ण ।
अथ मियामत कथन । दोहा मिथ्यामति विपरीत अति, ढूढ़ा प्रकटा जेम । तिनि वरन संक्षेपते, कहों सुनी हो नेम ।।१०
चौपाई स्वामी भद्रबाहु मुनिराय, पंचम श्रुतकेवलि सुखदाय । मुनिवर अवर सहस चौबीस, चउ प्रकार संघ है गणईश ॥११ उज्जयनी में जिनदत सार, ताके भद्रबाहु मुनि तार । चारिया कौं पहुंचे तहं गणी, झूलत बालक बच इम भणी ॥१२ गच्छ गच्छ विधि नहीं आहार, वारे वरष लगै निरधार । अंतराय मुनिवर मनि आन, पहुंचे संघ जहां वन थान ।।१३ स्वामी निमित लख्यी ततकाल, पड़िहै बारा वरष दुकाल । मुनिवर-धर्म सधै नबि सही, अब इहां रहनो जुगती नहीं ।१४ कितेक मुनि दक्षिण को गये, कितेक उज्जैनी थिर रहे। तहाँ काल पड़ियो अति घोर, मुनिवर क्रिया-भ्रष्ट ह्र जोर ।।१५ मत श्वेतांबर थापियो जान, गही रीत उलटी जिन वान। तिनको गच्छ बध्यो अधिकार, हुंडाकार दोष निरधार ॥१६ तिन अति हीण चलन जो गह्यो, चरित जु भद्रबाहु में कह्यो। ता पीछे पनरासे साल. कितेक वरष गए इह चाल ॥१५
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