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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष इनतें उलटी जे रोत, धार दढ़िया विपरीत । आहार जु सीलो बासी, रोटी राबड़ी सगरासी ॥३५
कांजी दुय तिय दिन केरी, बहु त्रस जोवनि की बैरी।
तरकारी हरित अनेक, ले पापी धरि अविवेक ॥३६ आदो कंदो अर सूरण, मूला त्रस थावर पूरण । ए लेय अहार मझारी, बहु केम दया बिन पारो ॥३७ आथाणो त्रस जिसधाम, फासू गिनि लेहे ताम । फुनि काचो दूध महाई, बहु बार लगे रखवाई ॥३८
दुय घडो गए तिह माहीं, पंचेंद्री जिय उपजाहीं।
महिषी मौतणो जु खीर, तैसे ह जीव गहीर ॥३९ इह भेद मूढ नहिं जानें, अघ-वाल अघ न बखानें । पंचेंद्री तामें थाई, सुलों फांसु गणवाई ॥४०
जिय अन्नतणी दुय दाल, दधि छांछि मांहि दे डाल । सो भोजन बिदल कहांही, खाये ते पाप बढ़ाही ॥४१ अन्न दाल छाछि दधि जेह, मुख-लाल मिले तब तेह। उतरता गला मंझारी, पंचेन्द्री जिय निरधारी ॥४२ उपजे तामाहे जानो, मन में संशय नहिं आनो। सो खैहै ढूंढ्यो पापी, करुणा तिन निश्चै कांपी ॥४३ कब खादि अखादि विचारी, उंठ्या समझे न गवारी।
अघ उपजे वस्तु जु माहीं, भाष्यो सुनि लेहु तहांहीं ॥४४ ऐसो पापी मुख देखे, ह पाप महा सुविशेखै । ऐसे कर अघ आचार, तिन माने मूढ़ गवार !!४५
धोवण चावल हांडी को, तिन ले गिन फासू नीको। सीले जल अन्न मिलाई, तामें बहु जीव उपजाई ॥४६ रवि उदय होत तिह बार, घरि घरि भटकै निरधार । जल ल्यावे फासू भाखे, तिह सांझ लगे धरि राखे ॥४७ उपजे ता माहे जीव, घटिका दुइ मांहि अतीव । सो बरते पीवे पानी, करुणा न तहां ठहरानी ॥४८ घृत जल धरि तेल सुचाम, सो बहु जीवन को धाम।
तिनते निपज्यो जु अहार, सो मांस-दोष निरधार ॥४९ ऐसो दोष न मन आने, तिनको हो नरक पयाने। ढूंढा अधकेरी मूरत, इन माने पापी धूरत ॥५० झूठी को सांच बखाने, उपदेश सु झूठो ठाणे । झूठो मारग जु गहावे, सो झूठ दोष को पावै ॥५१
शीलांग हजार अठारा, लागै तिन दोष अपारा । परिग्रह को ठीक न कोई, कपड़ा पात्रादिक होई ॥५२ ऐसो धरि भेष जु होन, माने तिन मूरख दीन । ग्यारा प्रतिमा प्रतिपालक, कोपीन कमण्डल धारक ॥५३ कोमल पीछे है जाके, श्रावक व्रत गिनिये ताके। परिग्रह तिल तुस सम होई, मुनिराज धरै जो कोई॥५४ वह जाय निगोद मझारी, जिन वाणी एक उचारी। सो कपड़ा की कहां रीत, चौथो पात्र विपरीत ॥५५
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