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________________ १८. श्रावकाचार-संग्रह ए भ्रमें जगत के माहीं, दुख को नहिं अन्त गहाहीं। तिन कहे महाव्रत धारी, ते पापी हीणाचारी ॥५६ इन माने ते संसार, भ्रमिहै न लहै कहं पार।। मन वच तन गुपति न गोपै, पापी मुनि धरमहि लोपै ।।५७ पिरथी जिम प्रान लहाहीं, चाले तिम भागे जाहीं। ईर्या समिति जु किम पाली, प्राणी हिंसा किम टाली ॥५८ हित मित वच कबहूँ न भाखै, जिन मत में उलटी आखै । सम जिन भाषा न पले है, अदया कबहूँ न टले है ।।५९ किम एषण समिति सधै है, जिनके इम पाप बंधैं है । जो दोष रहित आहार, नवि जाने वसु विध सार ॥६० मुनि अन्तराय जे होई, तिन नाम न समझे कोई। कुल ऊँच नीच नहिं जाणे, शूद्रन के असन जु आणें ॥६१ तंबोली जाट कलाल, गूजर अहीर वनपाल । खतरी रजपूत रु नाई, परजापति असन गहाई ॥६२ तेली दरजी अर खाती, छिपादिक जाति बहु भांती । मदिरा हू को जो पीवे, आमिष हु भखे सदीब ॥६३ भोजन मित भाजन केरो, ल्यावें अतिदोष घनेरो। तिन भींटो भोजन खैहै, ते मांस दोष को पैहै ।।६४ तो भोजन की कहं बात, जाने सब जगत विख्यात । जिहं भाजन अशन कराही, आमिष तिह मांझ धाराहीं ॥६५ जिन मारग एम कहाहीं, बासन जिह मांस धराहीं। सो शुद्ध न ह चिरकाल, गहिहैं सो भील चंडाल ॥६६ तिनके घर को जु आहार, पापी ल्यावे अविचार । अरु मुनिवर नाम घरावें, सो घोर पाप उपजावे ॥६७ ते नरक निगोद मझारी, भ्रमिहै संसार अपारी। अपने श्रावक तिन भनि है, कुल ऊंच नीच नवि गिनिहै ॥६८ तिनको कुछ एक आचार, कहिए विपरीत विचार । निजको माने गुणथान, पंचम श्रावक परधान ॥६९ बोहा खत्री, ब्राह्मण, वैश्य, फुनि, अवर, पौण बहतीस । धरम गहै ढूंढा निको, अरु तिन नावे सीस ॥६० ढंढा तिन श्रावक गिने, आप साधु पद मान । छहों काय रक्षा सवनि, उपदेशे इह बान ॥७१ दुहुने दया छह काय की पलै नहीं तहकीक । जीव धान फासू गिर्ने, वस्तु गहै तहकीक ।।७२ कथन कियो ऊपर सबै, लखहु बिबेकी ताहि । दुहुन चलन हूँ एक से, इहि मारग नहि आहि ।।७३ शुद्र करम करता जिके, निज-निज कुल अनुसार । पेट-भरन उद्यम सफल, करै दया किम धार॥७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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