________________
पदम -कृत श्रविकाचार
विनय चहुविध भेद तो, रत्नत्रय तप तणों ए । उपचार विनय तेह तो, ते तप गुणवन्त भण्यु ए ॥ ३२ निःशंक आदि अष्ट गुण ए. ए दर्शन गुण कजलो ए । व्यंजन अर्थ समग्र तो, ज्ञान अष्ट गुण निलो ए ॥ ३३ दर्शन ज्ञान चारित्र तो ते विनय तप धणों ए । उपचार विनय बिहु भेद तो, प्रत्यक्ष परोक्ष सुणों ए ॥ ३४
व्रत समिति गुप्ति तो, तेर भेदे चारित्र ए । द्वादश भेदें तप तो, ए उपचार पवित्र ए ॥३५ प्रत्यक्ष गुरुतणी भक्ति तो, मन वच कायाइ कीजिये ए । प्रशस्त विनय मन तीज तो, दुर्ध्यान दूरे त्यजिये ए ॥ ३६ हित मित मीठो बोल भास तो, कठिण करकस टालिये ए । दुर्वाक्य दूरें छोड़ तो, वचन विनय ते पालिये ए ॥ ३७ गुरु देखि कीजे अभ्युत्थान तो, प्रणाम करि अंजलि ए । आसन उपकरण दान तो, सह गुरु वली वीचल ए ॥ ३८ एह आदें विनय कीजे तो, मन वच काया पणे ए । गुरु आज्ञा वहे जेह तो परोक्ष विनय ते भणी ए ॥ ३९ विनय की बहु पुण्य तो, जस गुण अति विस्तरे ए ।
Jain Education International
....
॥४०
वैयावृत्त्य दश भेद तो, आचार्य उपाध्याय तपस्त्रि ए । शैक्ष्य ग्लाण गण कुल तो, संघ साधु मनोज्ञ पद दश ए ॥४१ मनवचकायाइ भक्ति तो, कीजे श्रावक यति तणो ए । आहार औषध देइ दान तो, सुश्रूषा कीजे घणी ए ॥४२ जिम किम जाइ जती रोग तो, साम्हों उपाय करो घणों ए । साधु समाधि तो, सदा वैयावृत्त घरो ए ॥४३ वैयावृत्त्य फल नन्दिषेण तो, इन्द्री बहुगुण ठव्यो ए । दशमें जई देवलोक तो, पछें ते वसुदेव हुंवो ए ॥४४ द्वारावतीइ श्री कृष्ण तो मुनिनें औषध करीइ ए । मतिवर टाल्यो रोग तो, तीर्थंकर पुण्य वरीइ ए ॥ ४५ इम जाणि भव्य जीव तो, वैयावृत्त्य जे करी ए । भोगवी सुरनर सुक्ख तो, शिवपुरी ते संचरी ए ॥४६ स्वाध्याय पंच भेद तो, वाचना पृच्छना आम्नाय ए । अनुप्रेक्षा धर्म उपदेश तो, सदा ते कीजे स्वाध्याय ए ॥ ४७ पुस्तक वांचो पूछो अर्थं तो, आम्नाय अनुक्रमें भणो ए । अर्थ चिंतन अनुप्रेक्ष तो, उपदेश धर्मं जिनतणो ए ॥४८ इणि परिकीजे स्वाध्याय तो, इन्द्री मन वच संवरो ए । अध्ययन परम तप तो, सदा ज्ञान अभ्यास करो ए ॥ ४९ घरो बहुमेदें कायोत्सर्ग तो, कभाने आसन रही ए । मूकी ममता संग मोह सो, व्युत्सगं ति एते कही ए ॥ ५०
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org