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श्रावकाचार-संग्रह
•स्यजी दुर्ष्यान आत्तं रौद्र तो, चहु भेदे आसंध्यान ए । इष्ट अनिष्ट विरह संयोग तो, पीडा चिन्ता निदान ए ॥५१ निज नारी पुत्र मित्र तो, सुखकारी वस्तु इष्ट ए । वियोग थाइ ज्यारे तेह तो, परिणाम होइ क्लिष्ट ए ॥५२ दुष्ट नारी दुष्ट पुत्र तो, दुर्जन दुखकारी ए । अनिष्ट संजोगें जीव तो, होए बहुकष्ट धारी ए ॥५३ वेदनी उदय असाता तो, बहुरोग तें उपजे ए । पीडा चिता टालो तेह तो, संवेगें सुख संपजे ए ॥ ५४ दान पूजा जप तप तो, ध्यान अध्ययन आचरि ए । निदान वांछे दुर्भोग तो, रागनें द्वेषें करी ए ॥ ५५ ए हवो त्यजो आर्त्तध्यान तो, पशुगतिनें दुख देखि ए । भूख तरस सहे बहुभार तो मार ताड़ कष्ट सहे ए ॥ ५६
चहुमेदें रुद्रध्यान तो, हिंसा मृषा स्तेयानन्द ए । विषयसंरक्षणानन्द तो, उपजे पाप वृन्द ए ॥५७
जीव-हिस हिंसानन्द तो, झूठूं वचन मृषानन्द ए ।
पर - द्रव्य-चोरी स्तेयानन्द तो, इन्द्री भोग विषयानन्द ए ॥५८ क्रूर मन भावे बहु पाप तो, रौद्रध्यानें नरक मांहे ए । छेदन भेदन मार मार तो, बहुविध दुःख सहे ए ॥ ५९ इम जाणि तजो आर्त रौद्रतो, आज्ञा उपाय विचय ए । विपाक विचय त्रीजो ध्यान तो, चौथो संस्थान विचय ए ॥६० निज गुरु मानों आंण तो, उपाय कर्मनाश तणो ए । कर्म उदय फल विपाक तो, त्रैलोक्य संस्थान भणो ए ॥ ६१
उत्तम चार धर्मध्यान तो, पदस्थ पिंडस्थ कह्यो ए । रूपस्थ रूप-अतीत तो, मन विकल्प ब्रह्मो ए ॥ ६२
जे जिनवयन विशाल तो, आगम पुराण घणां ए ।
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चितो पद अक्षर मंत्र तो तेह परस्थ ध्यान भण्यां ए ॥ ६३ पार्थिवी आग्नेयी मारुती तो, वारुणी तत्त्व रूपवती ए । पंच धारणा पिंडस्य सो, ध्यान ध्यावो जिनपती ए ॥६४ पंच परमेष्ठी रूप तो, अरिहन्त सिद्ध सूरी तणों ए । उपाध्याय साधु सुगुण तो, रूपस्थ रूप आपणो ए ॥ ६५ विकल्प संकल्प रहित तो, रूप कहि तणुं नहीं ए । केवल ज्योति स्वरूप तो, रूपातीत ध्यावो सही ए ॥६६ चहुँ भेदे शुक्लध्यान तो, पृथक्त्व वितर्क विचार ए । एकत्व वितर्क विचार तो, सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति सार ए ॥६७ व्युपरत क्रिया निवृत्ति नाम तो, शुक्लध्यान सदा ध्याइ ए । ज्ञान वैराग्ये होइ तो, शुभ भावना भावजो ए ॥ ६८ ध्यानतणों प्रकार तो, इहाँ संक्षेपें आप्यो ए । ध्यानामृतरास मशार तो, बिस्तारें तिहां जाण जो ए ॥६९
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