________________
पदम-त श्रावकाचार बाह्य अभ्यन्तर तप तो, द्वादश मेद कमाए। संक्षेपे कह्यो सविचारतो, विस्तार आगमें लही ए॥७० तप ते बहुम प्रभाव तो, महिझा जस घणों ए। पंच इन्द्री चंचल मन तो, वशकारी तप सुणों ए ॥७१ तप फले बहु रिद्धि तो, सिद्ध होइ मन तणी ए। सप्त भेदे महाऋद्धि तो, लब्धि उपजे घणी ए॥७२ बुद्धि नाम तप रिद्धि तो, विक्रिय ओषध ऋद्धि ए। बल लब्धि रस रिद्धितो, अक्षीण मानस ऋद्धि ए॥७३ एह आदें अड़तालीस रिद्धि तो, पंच मेद शुभ ज्ञान ए। कान्ति कला कोवाद तों, होइ गुण निधान ए ॥७४ इम जाणि भव्यजीव तो, तप सदा आचरो ए। कठिण हणी कुकर्म तो, मुक्तिनारी वेगे वेरो ए ॥७५ तप तीव्र अग्निवाले तो, जीव हेम निर्मल थाइ ए।
ध्यान रसायण दोधतो, कर्म दूरे जाइ ए॥७६ रागद्वेष कीजे दूर तो, हृदय धरि समभाव ए। ते तप साफल्य होड तो, भव-सागर नाव ए॥७७
रागद्वषे करी जे तप-तो, ते कष्टकारी काय ए। रेणु-पीलन, जल-मन्थ तो, जिम श्रम निष्फल थाय ए ॥७८ तप चिन्तामणि कामधेनु तो, तप ते कल्पवृक्ष सम ए। सुरनर वर सुख होइ तो, अनुक्रमे लहे मोक्ष ए॥७९
दोहा जिन गेहमां कीजें नहीं, विकथा विनोद विलास । खेल सिंहाणय मलमूत्र आदि व्यापार व्यसन उपहास ॥१ काम क्रीड़ा कोप कलि, त्यजो चतुर्विध आहार । अवर आसादना सहु तजो, जिन प्रासाद मझार ।।२ रीति करी न वि भेटीइ देव, जिनवाणी गुरु धर्म । विवेक गुण हृदय धरि, विवेकें होइ पुण्य परम ॥३ दिनकर उदये अस्त हते, दिवस घड़ी छो विशाल । धर्मव्रत काजि ग्रही, अवर नहीं हीन काल ॥४ तिथि पूरी जा लगि मिले, ता न वि कीजे काल । होन घड़ी छो मांहि कीजे नहीं, इम कहे श्रीजिनभान ॥५ देव शास्त्र गुरु पूजा तणों, जे जन खाइ निर्माल्य । वंश छेद रोग पामी ने, नरके दुःख सहे बाल ॥६ निर्माल्य खाइ जे जीव घj तेहथी रुडु विष भक्ष्य ।
एक भवे विष दुख देसे, निर्माल्य बहु भव दुःख ७ भेदशान भवि मन धरी, सदा धरो याचार । जिन सेवक पदमो कहे, सफल करो संसार १८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org