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श्रावकाचार-संग्रह
अभ्यन्तर ज्ञान बल ए, कीजे दूर कषाय तो। बाह्य वैराग्य तप बले ए, क्षीण कीजे इन्द्री काय तो ॥१२२ जिम जिम काया कस कीजिये ए, तिम तिम इन्द्री मद जाइ तो। रागद्वेष उपशम हवे ए, दुर्धर मन वश थाइ तो ॥१२३ मन गज गाढ़ो बांधीइ ए, अंकुश देई निज ज्ञान तो। सुमति सांकल सांकलो ए, वैराग्य स्तम्भ समान तो ॥१२४ अंग इन्द्री कषाय कृषि ए, लीजे शुभ संन्यास तो । चतुर्विध आहार त्यजी ए, कीजे ध्यान अभ्यास तो ॥१२५ दर्शन ज्ञान चारित्र तप ए, आराधना आराधो चार तो। मरण समाधि साधीइ ए, अंत संलेखणा भव-तार तो ॥१२६ पंच विधि अतिचार होइ ए, जीवित मरण संशय होय तो। मित्र प्रीति सुख-अनुबन्ध ए, निदान पंचम दोष होइ तो ॥१२७ दीर्घ जीवे वांछा करि ए, कष्ट देखी वांछे मरण तो। मित्र घणु अनुराग धरे ए, मुख वांछा अनुसरण तो ॥१२८ दान पूजा तप जप करि ए, बांचे निदान कुकर्म तो। रागें अथवा द्वेष भावे ए, चिते निज मन मर्म तो ॥१२९ इणि परे पंच दूषण त्यजी ए, साध संलेखणा सार जो। सुर नर वर सुख भोगवी ए, पामीड भवोदधि-पार तो ॥१३०
वस्तु छन्द व्रतहं पालो व्रतहं पालो भविजन जिन भावे करी । पंचव्रत अणव्रत निर्मला, त्रिणि गुणवतचार शिक्षाक्त उज्ज्वल ।
गुण शिक्षा सम शील कहि, स्वर्ग षोडश दायक निर्मल ॥ अणु गुण शिक्षा एणी परे धरे जे एह व्रत वार । जिन-सेवक पदमो कहे, ते तरसे संसार ।
___ ढाल सहेलडीनी दान तणा फल वर्णवं रे, किणे दीयो दान आहार ।
तेह कथा तम्हें सांभलो रे. श्रीषेण तणी भवतार ।। साहेलडी, दीजे दान सुपात्र, सफल कीजे निजगात्र साहेलडी. दीजे दान सुपात्र ॥१
आर्य खंड इह जाणीए रे, मलय देश मझार। रत्न संचय नयर भलो रे. श्रीषेण भूप गुण धार, साहेलडी० २ तस दोय राणी रूपडी रे, संधन दिता पहिली नाम । अनिन्दता दूजी निर्मली रे, रूपकला गुण दाम. साहेलडी० ॥३ वे बेहु कूखें पुत्र अवतर्या रे, इन्द्र नामें पेहिली होय । उपेन्द्र बीजो ऊजलो रे, चरम शरीरी ते दीय, साहेलडी० ॥४ सातकी विप्र तिहां वसेरे, जंबुनामें तस नार। तेह कूखें पुत्री उपनी रे, सत्यभामा कुमारि, साहेलडी० ॥५
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