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पैदम-कृत श्रावकाचार
मेघरथ मढ़साला पण ए, सातमी नरके ते जाय तो। कुदान-पाप तणे फल ए, अवर नारकी इम थाय तो ॥१०४ इम जाणि विवेक धरी ए, परिहरु कुदान कुपात्र तो। जैन पात्र सहु पोषीए ए, सफल कीजे निज गात्र तो ॥१०५ पात्र-कुपात्र इमउं लखी ए, पात्र-दान धर्म बुद्धि तो। अवर कुपात्र-अपात्र कह्यां ए, दान दोजे दया शुद्धि तो ॥१०६ लक्ष्मी तणा फल लीजिए ए, पुण्य सांचो दातार तो। सप्त क्षेत्रे वित्त वावरो ए, जिनशासन मझार तो ॥१०७ जिन प्रासाद करावीइ ए, जीर्ण तणो उद्धार तो। जिनवर बिम्ब भरावीइ ए, जिनपुस्तक विस्तार तो ॥१०८ प्रासाद प्रतिमा जंत्र आदि ए, कोजे प्रतिष्ठा चंग तो। अष्टविध जिन पूजोइ ए, कीजे महोत्सव चंग तो ॥१०९ जिन गेह-बिम्ब ज्यां लगि नांदीइए, पूजा करे भविजन्न तो। धर्मे उपराजी बहु परि ए, त्यां लगे दाता लहे पुण्य तो ॥११० यव-सम प्रतिमा जिन-सम ए, बिम्ब-दल प्रासाद तो। तेहनां पुण्य नो पार नहीं ए, भव्य मन करे आह लाद तो ॥१११ जेह घर जिन बिम्ब नहीं ए, त्रिधा पात्र नहीं दान तो। जिहां साधरमी आदर नहीं ए, ते घर जाणों समसान तो ॥११२ मुनीश्वर आर्या कहीइ ए, श्रावक-श्राविका संध चार तो। भक्ति विनय घणों कीजीइ ए, कीजे पर उपकार तो ॥११३ संघ मिलि संघपति थइ ए, सिद्धक्षेत्र कीजे जात्र तो। साधर्मी वात्सल्य कीजीइ ए, सफल कोजे धन गात्र तो ॥११४ ए आदि बहु परि ए, कीजे पुण्य आचार तो। त्रीजा शिक्षाबत तणी ए, दोष कहुँ पंच प्रकार तो॥११५ सचित्त-
निक्षेप पेहली दोष ए, सचित्त पद्म पत्र आदि तो। ते उपर ववि आहार करे ए, ते तमें त्यजो अतिचार तो॥११६ आदर विना आहार दीइ ए, अथवा ये उपदेश तो। व्यापार काजे वेगो जाइए, ते त्रीजो दान दोष तो ॥११७ दान देतो मत्सर करे ए, धरे ते लक्ष्मी-अहंकार तो। दान काल उलंघन करे ए, प्रमादपणे तिणि वार तो॥११८ ये पंच दूषण त्यजी ए, सदा देओ शुभ दान तो। अतिथि संविभाग व्रत धरो ए, हृदय थई सावधान तो॥११९ चौथो शिक्षाव्रत सुणों ए, अन्त संलेखण नाम तो। शरीर-संलेखण कोजीइ ए. क्षीण कषाय परिणाम तो॥१२० क्रोध मान माया लोभ ए, क्षीण कीजे रोष कुराग तो। पंच इन्द्री प्रसार मन ए, कोजे मद परित्याग तो ॥१२१
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