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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष यह व्रत संवर धरि मन लाय, सबरी हरी तजिए दुखदाय । दस दिन शील वरत पालिये, संवरहू इह विधि धारिये ॥६० वसु एकासण, विधि जुत करे, पाँच पाप व्रत धरि परिहरे । धरि आरम्भ तजै अघ-दाय, दिवस आठलों शुभ उपजाय ॥६१ अब मरयादा सुनि भवि जीव, धरि त्रिशुद्धता सों लखि लीव । सत्रह बरष साखि इक जान, करिये बावन साख प्रवान ॥६२ अथवा आठ बरष लों जान, बीस चार तसु साख बखान । पंच वरष करि पंदरा साख, धरि मन बच तन शुभ अभिलाख ॥६३ तीन वरष नो साख प्रमाण, एक वरष तिहुं साख सुजाण । जैसी सकति छइ अवकास, सो विधि आदर करि भवि तास ॥६४ सकति प्रमाण उद्यापन करे, सँवर तै कबहूँ नहिं टरे । मैंना सुन्दरि अरु श्रीपाल, कियो बरत फल लह्यो रसाल ॥६५ कोड़ अठारह रहते जास, सबै गए सुवरण परकास । और जहूँ ते सात से वीर, तिनके निर्मल भए शरीर ॥६६ चक्री भयों नाम हरषेण, व्रत त्रिशुद्ध आराध्यो तेण।। तिन फल पायौ सुख दातार, करम नासि पहुंचे भव-पार ॥६७ अंतराय पारो भवि सार, मौन सहित करिए आहार। ब्रत में हरी जिके नर खाय, संवर तास अकारथ जाय ॥६८ तातें व्रत धारी नर नार, मन वच क्रम हियरे अवधार। विधि माफिकते भविजन करो, सुर नर सुख लहि शिव-तिय बरौ ॥६९ सकल वरष के दिन मैं जान, परब अठाई भूषित मान । खग भूमीस मिले नरेस, तिनकरि पूज जेम चक्रेस ॥७० चक्री की जो सेवा करे, सो मनवांछित सुख अनुसरे । आज्ञा-भंग किए दुख लहै, ऐसे लोक सयाणे कहै ॥७१ तिन जो इम दिन संबर धरे, तास पुण्य बरनन को करे। जो इन दिन में अघ उपजाय, संख्यातीत तास दुख थाय ॥७२
दोहा
इहै अठाही व्रत धरो, प्रगट वखाण्यो मर्म ।
सुरगादिक की बारता, लहै सास्वतो समं ॥७३ अथ सोलह कारण, वश लक्षण, रत्नत्रय व्रत विधि-कथन
चौपाई सोलह कारण विधि सुनि लेह, जिन आगम में भाषी जेह। भादों माघ चैत तिहुँ मास, मध्य करे चित धारि हुलास ।।७४ वास इकंतर विधि जुत धरे, बीच दोय जीमण नहिं करे। सोलह बरस करे भवि लोय, उद्यापन करि छांडे सोय ॥७५
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