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________________ २१८ श्रावकाचार-संग्रह तिम सज्जन मुझको भारी, हंसिहै संशय नहिं कारी। बुधजन मो क्षिमा करीजे, मेरो कछु दोष न लीजे ।।८८ जो अशुद्ध होय पद याही, शुध करि पढियो भवि ताही । अधिको नहिं कहनो जोग, बुधजन को यही नियोग ।।८९ बडिल्ल किसन सिंह इह अरज करे सब जन सुनो, कर मिथ्यात को नाश निजातम पद सुनो। क्रिया सहित व्रत पाल करण बश कीजिये, अनुक्रम लहि शिव थान शाश्वता जीजिए ॥९० ॥ सवैया इकतीसा ३१॥ सत्रह सौ सम्बत् चौरासो यासु भादों मास वर्षारितु स्वेत तिथि पून्यो रविवार है। शतिभिषा रवि धृतनाम जोग कुम्भ ससि सिंघको दिनेस मुहूरत अति सार है । ढुंढाहर देस जान बसे सांगानेर थान सिंह सवाई महाराज नीति धार है। ताके राज-समय परिपूरण की इह कथा भव्यनि को हिरदय हुलास देनहार है ॥९१ द्वैसे चौवन पैतीस इकतीसा मरहटा पचास पांच से बीस ठाने हैं।। सातसै छाणवे सु चौपई छबीस छप्पै पीड़ी पैंतीस तेरा सोरठा बखाने हैं। अडिल्ल बहत्तर नाराच आठ गीता दस कुण्डलिया तीन छह तेईसा प्रमान है। दूत विलंबितं चार आठ हे भुजगी तीन त्रोटक त्रिभंगी नव छन्द ऐते आने हैं ॥९२ ॥सवैया तेईसा २३ ॥ छन्द कहे इस ग्रन्थ मझार लीए गनि जे उक्तं च धराई, दोय हजार मही लखि घाट पंचसीय एह प्रमान कराई। जो न मिले तुक अक्षर मात तदा पुनरुक्क न दोष ठराही, तो मुझको लखि दीन प्रवीन दसो मति में तुम पाय पराही ॥९३ ग्रन्थ लिखै इह लेखक को इक है मरयाद सिलोक किती है, छन्दनि के सब अक्षर जोरि रूप ध्वनि अंक जु मांधि तिठी है। ते सब वर्ण बतीस प्रमाण श्लोकनि को गणती जुइती है, दोय हजार परी नवसे लखि लेहु जिके भवि शुद्धमती है ।।९४ छप्पय छन्द मंगल श्री अरिहंत सिद्ध मंगल सिव-दायक, आचारज उवझाय साधु गुरु मंगल-लायक । मंगल जिनमुख खिरी दिव्य धुनि मय जिनवाणी, मंगल श्रावक नित्य समकिती मंगल जानी। मंगल जु ग्रन्थ इह जानियो, वक्ता-मुख मंगल सदा । श्रोता जु सुनै निज गुण मु., मंगल कर तिनको सदा ॥९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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