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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
छन्द त्रिभंगी अष्टाह्निक धारण सोलह कारण व्रत दशलक्षण रतनत्रयं, शुभ लब्धि विधानं अखय निधानं मेघ सु मालो षडरसयं । ज्येष्ठादिक जिनवर रसपाण्यावर ज्ञान पचीसी अखय दसै, समवादिक सरणं व्रत सुख करणं सुखं पंचम आकास लसै ॥७६ खंडेलीवाल वंसबिसालं नागर वालं देस धियं, रामापुर वासं देव निवासं धर्म प्रकासं प्रकट कियं । संघ ही कल्याणं सब गुण जाणं गोत्र पाटणी सुजस लियं, पूजा जिनरायं श्रुत गुरुपायं नमै सकति जिन दान दियं ॥७७ तसु सुत दोय एवं गुरु सुखदेवं लहुरो आणदसिंघ सुणी, सुखदेव सुनंदन जिनपद वंदन ज्ञान मान किसनेस मुणो। किसनै इह कीनी कथा नवीनी निज हित चीनी सुरपदकी, सुखदाय क्रिया भनि इह मन वच तन शुद्ध पलें दुरगति रदकी ॥७८
बोहा मधुर राय बसन्त को, जाने सकल जहान । तस प्रधान सुत कोन जू, किसन सिंह मनमान ॥७९
अडिल्ल क्षेत्र विपाकी कर्म उदै जब आइयो, निज पुर तजि कै सांगानेर बसाइयो। तह जिन धर्म प्रसाद गर्न दिन सुखलही, साधरमी जन सजन मान दे हित गही ।।८०
दोहा इह विचार मन आनियो, क्रिया कथन विधिसार । होय चौपई बंध तो, सब जन कुं उपगार ॥८१ सब ही जन वांचो पढौ, सुणी सकल नर नार। सुखदाई मन आणिये, चलो क्रिया अनुसार ॥८२
छन्दचाल व्याकरण न कबही देख्यो, छन्द न नजरां अवलेख्यो। लघु दीरघ वरण न जाणूं, पद मात्रा ह न पिछाणं ॥८३ मति-हीन तहां अधिकाई, पटुता कबहूँ नहि पाई। मनमांही बोहि आई, श्रेपन किरिया सुख दाई ॥८४ इह कथा संस्कृत केरी, भाषा रचिहों शुभ बेरी। कछु अवर ग्रंथ ते जानी, नानाविध किरिया आनी ।।८५ घर क्रियाकोष तिस नाम, पूरण करिहो अभिराम । जिम मूढ़ समुद्र अबगाहै, जिन भुजतें उतरो चाहै ॥८६ गिरि परि तरु को फल जानी, कुबजक मनि तोरन ठानी शशि नीर कुंड के मांहीं, करतें शशि-बिम्ब गहाही ॥८७
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