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________________ प्रस्तावना सभीने पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके पूजन और जाप करने का विधान किया है। पं० दौलतरामजीने अष्ट मूलगुणोंके वर्णनसे साथ ही अभक्ष्य वस्तुओंने त्यागका, चौका, चक्की, परंडा आदिको श द्धिका, रजस्वला-प्रसूतादि स्त्रीके हाथसे स्पर्शी वस्तुओंकी अग्राह्यता का, और सप्त व्यसनों का जैसा भावपूर्ण वर्णन किया है, वह पढ़ते ही बनता है । शेष दोनों के वर्णनमें वैसी भावपूर्ण सरसता नहीं है। इसी प्रकार व्रती श्रावकके नहीं करने योग्य व्यापारोंका, सम्यक्त्वके भेदोंका विशद और सरस वर्णन तथा अहिंसाणुव्रतके वर्णनमें दया का अपूर्व विस्तृत वर्णन भी बार-बार पढ़ने के लिए मन उत्सुक रहता है । पदम कविने सामायिकके ३२ दोषों का वर्णन तीसरी प्रतिमामें किया है। किन्तु किशन मिहजोने दूसरो ही प्रतिमामें किया है । पर दौलतरामजोने उनका कहीं कोई वर्णन नहीं किया है । इन बत्तीस दोषोंका वर्णन अनेक श्रावकाचार-कर्ताओंने भी किया है। पर वस्तुतः ये दोष साधुओंके लिए ही मूलाचार आदिमें बतलाये गये हैं। श्रावकको जितना संभव हो, उतने दोषोंसे बचने का प्रयत्न करना चाहिए। पदम कविने चार शिक्षा ब्रतोंका वर्णन कुन्दकुन्दके अनुसार किया है, किन्तु किशनसिंह जी और दौलतरामजीने तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार किया है। श्रावकके १७ नियमोंका वर्णन तीनोंने ही किया है। अन्तमें एक ही प्रश्न विचारणीय रह जाता है कि किशन सिंहजीके द्वारा सांगानेर (राजस्थान) में रहते हुए स. १७८४ में क्रिया कोषको रचना करनेके केवल ११ वर्षके बाद ही दौलत रामजीने उदयपुर में अपने क्रिया कोषको रचना क्यों की? दोनों क्रियाकोषोंको गंभीर और सूक्ष्म दृष्टिसे देखनेपर हम दो निष्कर्षोंपर पहुंचे हैं। प्रथम तो यह कि संभव है कि दौलतरामजीको किशनसिंहजीके क्रियाकोषके दर्शन ही नहीं हुए हों। और संस्कृत क्रियाकोषके मिलनेपर उन्हें उसकी उपयोगिता प्रतीत होनेसे भाषा छन्दोंमें सर्वसाधारण पाठकोंके लिए उसकी रचना करना आवश्यक प्रतीत हुआ हो। दूसरा कारण यह भी संभव है कि किशनसिंहजी-रचित क्रिया कोषमें उन्हें भट्टारकीय या वोसपन्थ-आम्नायको गन्ध आई हो और इसलिए उन्होंने विशुद्ध तेरापन्थ-आम्नायके अनुसार क्रियाकोषको स्वतंत्र छन्दोबद्ध रचना करना अभीष्ट रहा हो। किशनसिंहजीके क्रियाकोषमें वीसपन्थको गन्ध आनेके कुछ स्थल इस प्रकार हैं(१) मध्याह्न पूज-समए सु एह, मनुहरण कुसुम बहु देखि देह । अपराह्न भविक जन करिह एव, दीपहि चढ़ाय बहु धूप खेइ ॥३॥ (प्रस्तुत संग्रह पृ० २०४) (२) जो भविजन जिन-पूजा रचे, प्रतिमा परसि पखालहि सचे। मौन-सहित मुख कपड़ो करे, विनय विवेक हरष चित धरै ॥४८॥ (प्रस्तुत संग्रह पृ० २०५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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