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श्रावकाचार-संग्रह किशन सिंह जोने जन्म-मरणकी मिथ्या क्रियाओंका, सूतक-पातकका ग्रह-शान्ति, ज्योतिषचक्र और सूर्य-चन्द्रके ग्रहणका जैन मान्यताके अनुसार विस्तारसे वर्णन किया है। किन्तु पदम कविने और दौलतराम जीने यह कुछ भी वर्णन नहीं किया है।
पदम कविने मंत्र-जापके समय विभिन्न अंगुलियों परसे उसके विभिन्न फलोंका वर्णन किया है, किन्तु किशन सिंह जीने जाप्य मंत्रोंका वर्णन करते हुए भी विभिन्न अंगुलियों परसे जाप करने के विभिन्न फलों को का कोई वर्णन नहीं किया है। दौलतराम जी ने सामायिका विस्तृत वर्णन करते हुए भी उक्त विवेचन नहीं किया है ।
पूजन का वर्णन यद्यपि तीनों की ग्रन्थकारोंने किया है, परन्तु पूजन-प्रक्षाल करते समय मुखपर कपड़ा बांधनेका विधान केवल किशन सिंहजी ने ही किया है। मुखपर कपड़ा बांधकर पूजन-प्रक्षाल करनेका रिवाज मूर्तिपूजक श्वेताम्बर जैनोंमें आज भी प्रचलित है और कुछ समय पूर्व तक बुन्देल खण्डके दि० जैनियोंमें भी था।
पदम कवि ने निर्माल्य भक्षण के महादोष का वर्णन किया है, परन्तु दोनों क्रिया कोषकारों ने इस विषय पर कुछ नहीं कहा है।
किशन सिंह जीने लोक-प्रचलित मन-गढन्त मिथ्या व्रतोंका निषेध कर आष्टाह्निक, सोलह कारण आदि अनेक जैन व्रत-विधानोंका जैसा विधि-पूर्वक विस्तृत विवेचन किया है, वैसा शेष दोनोंने नहीं किया है।
दौलतरामजीने बारह प्रकारके तपोंका जैसा विस्तृत वर्णन किया है, वैसा शेष दोनों ने नहीं किया है।
किशनसिंहजीने जिन-मन्दिरमें नहीं करने के योग्य चौरासी आसादनाओं का तथा मिथ्यात्वमयी नवग्रह-शान्ति का निषेध कर जैनविधि से नवग्रह-शान्ति और ज्योतिष चक्र का वर्णन किया है, पर शेष दोनों ने इस पर कुछ नहीं लिखा है।
विवाह के समय एवं जन्म-मरण के समय की जाने वाली मिथ्यात्वपूर्ण क्रियाओं का जैसा निषेध पदम कविने किया है, वैसा शेष दोने नहीं किया है।
किशनसिंहजीने प्रातःकालीन पूजनको अष्ट द्रव्योंसे, मध्याह्न पूजन सुन्दर पुष्पोंसे और सायंकालकी पूजन को दीप-धूप से करनेका वर्णन किया है, वैसा शेष दोने नहीं किया है।
__ पूजकको नौ स्थानोंपर तिलक लगाने और आभूषण धारण करनेका वर्णन भी किशनसिंहजीके सिवाय शेष दोने नहीं किया है। वस्तुतः यह विधि पंचकल्याणकादि विशिष्ट पूजाविधानोंके लिए है, फिर भी भक्तजन अपने नवों अंगोंमें चन्दन लगाकर उक्त कर्तव्य को पूर्ति कर ही लेते हैं।
__ जाप करते समय पभोकारमंत्रको तीन श्वासोच्छ्वासोंके द्वारा उच्चारण करनेका विधान इन्होंने किया है। यथा प्रथम पदको श्वांस खींचते हुए, दूसरे पदको श्वास छोड़ते हुए, तीसरे पदको श्वास खींचते हुए और चौथे पदको श्वास छोड़ते हुए तथा पंचम पदके ‘णमो लोए' पदको श्वास लेते हुए और 'सव्वसाहणं' पदको श्वास छोड़ते हुए उच्चारण करना चाहिए। इस प्रकार से तीन श्वासोच्छ्वासोमें उच्चारण करनेसे मन इधर-उधर न भागकर स्थिर रहता है।
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