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________________ प्रस्तावना __ मिथ्यात्वपूर्ण एवं मन-गढन्त लोक-प्रचलित मिथ्यावतों का वर्णन कर उनके त्याग का जैसा उपदेश किशनसिंह जीने दिया है वैसा शेष दोने नहीं किया है। पदन कविने मिथ्यात्वके निरूपणके पश्चात् सम्यक्त्व-प्राप्तिको योग्य भूमिका वर्णन कर सप्त तत्त्वोका और सम्यक्त्वके भेदोंका स्वरूप विस्तारसे कहा है। किन्तु किगनसिंह जीने वेपन क्रियाओं को गिनाकर और मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्वका कुछ भी वर्णन न करके मूलगुणोंका वर्णन करते हुए इस प्रकारके अमक्ष्योंका विस्तारसे वर्णन किया है। दौलतराम जीने भी मंगलाचरणके पश्चात् मिथ्यात्व-सम्यक्त्वका वर्णन न करके अमक्ष्य-पदार्थोंका वर्णन किया है। साथ ही दोनोंने भक्ष्य अभक्ष्य वस्तुओंको काल-मर्यादा का वर्णन प्राचीन गाथाओं के प्रमाण के साथ किया है। पदमकविने रत्नकरण्डकके समान सर्वप्रथम सम्यक्त्व के अगोंका विस्तृत स्वरूप और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों की प्रश्नोत्तर शावकाचार के ममान कथाओं का निरूपण किया है। किन्तु किशन सिंह जी ने सम्यक्त्व के अंगों का और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों को कथाओं का कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। दौलतराम जो ने अति संक्षेप में आठों अंगों का स्वरूप कह कर उनमें प्रसिद्ध पुरुषों के केवल नामोंका ही उल्लेख किया है। पदम कवि ने उक्त प्रकार से सभ्यग्दर्शन का सांगोपांग विस्तृत वर्णन करके पश्चात् दर्शन प्रतिमा का वर्णन करते हुए सर्व प्रथम सप्त व्यसन-सेवियों में प्रसिद्ध पुरुषों का उल्लेख कर उनके त्याग का उपदेश दिया। तत्पश्चात् अष्टमूलगुण, पालने जल-गालने और रात्रिभोजन के दोष बताकर उसके त्यागका उपदेश दिया। सदनन्तर व्रत प्रतिमाके अन्तर्गत श्रावकके बारह व्रतोंका विस्तार से वर्णन किया है। किन्तु किशनसिंहजीने प्रतिभाओं के आधार पर उक्त वर्णन न करके आठ मूल गुणों का वर्णन कर अत्यक्ष्य पदार्थों का विस्तार से वर्णन कर उनके त्याग का और चौके के भोतर ही भोजन करने का विधान किया है। पदम कविने सम्यक्त्वके अंगोंका और उनमें प्रसिद्ध पुरुषोंको कथाओंका वर्णन कर व्रत प्रतिमा आदिका विस्तारसे वर्णन कर अन्तमें छह आवश्यक, बारह तप, रत्नत्रय धर्म और मैत्री-प्रमोवादि आवनाओंका वर्णन कर अन्तमें समाधिमरणका वर्णन कर अपनी वृहत् प्रशस्ति दी है। किन्तु किशनसिंहजीने अभक्ष्य वर्णनके पश्चात् रजस्वला स्त्रीके कर्तव्योंका विस्तारसे वर्णन कर श्रावकके बारह व्रतोंका और समाधि मरणका वर्णन किया है । तद. नन्तर श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंका संक्ष पसे वर्णन कर जल-गालन, रात्रि भोजन-त्यागरूप अणथम (अनस्तमित) व्रत और रत्नत्रय धर्मका वर्णन कर केर-सांगरी आदिकी घृणित उत्पत्ति, गोंद, अफीम, हल्दी और कत्था आदिको जिन्द्य एवं हिंसामयी उत्पत्तिका विस्तारसे वर्णन किया है। तत्पश्चात् मिथ्यामतोंका निरूपण करते हुए लू कामतको आचार-हीनता का, और जिन-प्रतिमा का विस्तारसे वर्णन किया है। पदम कवि ने लूंकामत का कोई उल्लेख नहीं किया है और दौलतराम जीने नामोल्लेख न करके उनके मतकी समालोचना कर जिन प्रतिमाकी महत्ताका शंका-समाधान पूर्वक वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि पदम कविके समयमें लू कामतका या तो प्रारम्भ ही नहीं हुआ था, और यदि हो भी गया होगा, तो उसका प्रचार उनके समयमें नगण्य-सा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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