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श्रावकाचार-संग्रह निशि-भोजनका दोष । दोहा अब सुनि रात्रि अहारका, दोष महा दुखदाय । हूँ मुहरत दिन जब रहै, तबतें त्याग कराय ॥९० दिवस मुहूरत द्वैचढ़े, तबलों अनसन होय । निशि अहार परिहार सो, व्रत न दूजो कोय ॥९१ निशिभोजनके त्यागर्ते, पाव उत्तम लोक । सुर नर विद्या धरनके, लहै महासुख थोक ॥९२ जे निशि भोजन कारका, तेहि निशाचर जानि । पाव नित्य निगोदके, जनम महा दुखखानि ॥९३ निशि वासरको भेद नहिं, खात तृप्ति नहिं होय । सो काहेके मानवा, पशुहूत अधिकोय ॥९४ नाम निशाचर चारको, चोर समाना ते हि । चरै निशाकों पापिया, हरै धर्ममति जे हि ॥९५ बहरि निशाचर नाम है, राक्षसको श्रुतिमाहि । राक्षस सम जो नर कुधी, रात्रि अहार कराहिं ॥९६ दिन भोजन तजि रैनिमैं, भोजन करै विमूढ़ । ते उलूक सम जानिये, महापाप आरूढ़ ॥९७ मांस अहारी सारिखे, निशिभोजी मतिहीन । जनम जनम या पापत, लहैं कुगति दुखदोन ॥९८
नाराच छन्द उलक काक औ बिलाव श्वान गर्दभादिका, गहै कुजन्म पापिया जु ग्राम शूकरादिका । कुछारछोवि १ माहिं कीट होय रात्रिभोजका, तजै निशा अहारकों विमुक्ति पंथ खोजका ||९९ निशा महैं करें अहार ते हि मूढ़धी नरा, लहैं अनेक दोषकू सुधर्महीन पामरा। जु कीट माछरादिका भखै अहार माहिं ते, महा अधर्म धारिके जु नर्क माहि जाहिं ते ॥२०००॥
छन्द चाल निशिमाहीं भोजन करही, ते पिंडु अभखते भरही । भोजनमें कीडा खाये तातै बधि मल नशाये ॥१ जो जूंका उदरें जाये, तो रोग जलोदर पाये। मांखी भोजनमें आवै, ततखिन सो वमन उपावै ॥२ मकरी आवे भोजनमें, तो कुष्ट रोग होय तनमें । कंटक अरु काठजु खंडा, फसि है जा गले परचंडा ॥३
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