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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
३८१ वस्त्र पुरानो अवर रंगको नांतिनां, राखे तिनत ज्ञानवन्तकी पाति नां। छाणन एक हु बूंद महीपरि जो परै,
भार्षे श्रीगुरुदेव जीव अगणित मरें ॥७४ बरतें मूरख लोग अगाल्यो नीर जे, तिनकों केतो पाप सुनो नर धीर जे। असी बरसलों पाप करै धीवर महा, अवर पारधी मोल वागुरादिक लहा ।।७५ तेतो पाप लहें जु एक ही वार जे, अणछाण्यं बरतें हि वारि तनधार जे। ऐसौ जानि कदापि अगाल्यौ तोय जी, बरतो मति ता माहिं महा अघहोय जी ॥७६ मकरीके मुखथकी तन्तु निकलें जिसौ, अति सूक्षम जो वीर नीर कृमि है तिसौ। तामें जीव असंखि उ. द्वै भ्रमर ही जम्बूद्वीप न भाय जिनेश्वर यों कही ।।७७ शुद्ध नातणे छांणि पान जलकों करै, छाण्यां जलथी धोय नांतणो जो घरै। जतनथकी मतिवन्त जिवाण्यूँ जलविणे, पहुंचावै सो धन्य श्रुतविर्षे यूं लिखें ॥७८ जा निर्वाणको होय नीर ताही महै, पधरावै बुधिवान परम गुरु यों कहें।। ओछ कपड़े तीर गालही जे नरा, पावै ओछो योनि कहें मुनि श्रुतधरा ॥७९ जलगालन सम किरिया और नाहीं कही, जलगालणमें निपुण सोहि श्रावक सही। चउथी पडिमा लगें लेई काचो जला, आगे काचौ नाहिं प्रासुको निर्मला ॥८० जाण्यूं काचौ नीर इकेन्द्रो जानिये, द्वै घटिका त्रसजीव रहित सो मानिये । प्रासुक मिरच लवंग कपूरादिक मिला, बहुरि कसेला आदि वस्तुतें जो मिला ॥८१ सों लेनों दोय पहर पहली ही जैनमें, आगें त्रस निपजन्त कह्यौ जिनवैनमें । तातो भात उकालि वारि वसु पहर ही, आगे जंगम जीवहु उपजे सहज हो ।।८२
चौपाई
जे नर जिन आज्ञा नहिं जाने, चित्तमें आवै सो ही ठाने । भात उकाल कर नहिं पानी, कछू इक उष्ण करै मनमानी ॥८३ ताहि जु वरतें अष्टहि पहरा, ते व्रत वर्जित अर श्रुति बहरा। मरजादा माफिक नहिं सोई, ऐसें वरतो भवि मति कोई ॥८४ जो जन जैनधर्म प्रतिपाला, ता घरि जलकी है इह चाला । काचौ प्राशुक तातो नीरा, मरजादामें वरतै वीरा ॥८५ प्रथमहिं श्रावकको आचारा, जलगालण विधि है निरधारा । जे अणछाप्यों पी पाणी, ते धीवर वागुर सम जाणी॥८६ बिन गाल्यो औरै नहिं प्याजे, अभख न खाजै और न ख्वाजे । तजि आलस बर सब परमादा, माले जल चित धरि अहलादा ॥८७ जलगालण नहिं चित करे जो, जल छाननमें चित धरै जो। अणछाण्यांकी बूंद हु धरती, नाखै नहीं कदाचित वरती ॥८८ बून्द पर तो ले प्रायश्चित्ता, जाके घटमें दया पवित्ता। यह जलगालणकी विधि भाई, गुरु आज्ञा अनुसार बताई ॥८९
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