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दौलतराम-कृत क्रियाकोष पापक्रिया सब परिहरी, ए गुण होंय एकीस । इनकों धारै सो सुघी, लहै धर्म जगदीश ।।४८ इन गुण बाहिर जीव जो, स्रावक नाहिं गनेय । श्रावक व्रत के मूल ए, श्री जिनराज कहेय ।।४९ श्रावक ब्रत सब जाति को, जति-ब्रत तीन गहेय । द्विज क्षत्री वाणिज बिना, जति व्रत नाहिं जु लेय ॥५० अर एते विणज न करे, श्रावक प्रतिमा धार । धान पान मिष्टान अर, मोम हींग हरतार ॥५१ मादक लवण जु तेल घृत, लोह लाख लकड़ादि । दल फल कन्दादिक सबै, फूल फूस सीसादि ।।५२ चीट चाबका जेबड़ा, मूंज डाभ सण आदि । पसु पंखी नहिं विणजवो, साबुन मधु नीलादि ॥५३ अस्थि चर्म रोमादि मल, मिनखा बेचवी नाहिं। बन्दि पकड़नी नाहिं कछु, इह आज्ञा श्रुत माहिं ।।५४ पशु-भाड़े मति द्यो भया, त्यागि शस्त्र व्यापार। वध बंधन व्यवहार तजि, जो चाही भव-पार ।।५५ जहाँ निरंतर अगिनि को, उपजे पापारंभ । सो व्यौहार तजौ सुधी, तजौ लोभ छल दंभ ॥५६ कन्दोई लोहार अर, सुवर्णकार शिल्पादि । सिकलीगर बाटी प्रमुख, अबर लखेरा आदि ॥५७ छीपा रंगरेजादिका. अथवा कुम्भ जु कार । बत धारी ए नहिं करै, उद्यम हिंसाकार ।।५८ रंग्यो नीलथको जिको, सो कपरा तजि बीर । अति हिंसाकर नीपनों, है अजोगि वह चीर ॥५९ कप तड़ाग न सोखियो, करिये नहीं अनर्थ । हिंसक जीव न पालिये, यह श्रुत धारी अर्थ ॥६. विषनि विणजवो है भला, इसा विणजवी नाहिं। नहीं सीदरी सूतली, होय विणज के मांहि ॥६१ बिणज करो तो रतन को, के कंचन रूपादि। के रूई कपड़ा तनों, मति खोवो भव बादि ॥६२ जिनमें हिंसा अल्प है, ते व्यापार करेय । अति हिंसा के विणज जे, ते सब ही तज देय ॥६३ ए सब रोति कही बुधा, मूल गुणनि में ठीक । ते धारौ सरधा करी, त्यागी बात अलीक ॥६४ . जैसें तरु के जड़ गिनी, अह मंदिर के नींव ।
तैसें ए बसु मूलगुण, तप जप व्रत की सीव ॥६५
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