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श्रावकाचार-संग्रह सुबुधि विवेकी सुवत-धारी, शीलवन्त सुन्दर अविकारी। दाता सूर तपस्वी श्रुतधर, परम पुनीत पराक्रम भर नर ॥९५ जिनवर भरत बाहुबलि सगरा, रामहणू पांडव अर विदरा । लव अंकुश प्रद्युम्न सरीसा, वृषभसेन गोतम स्वामी सा ॥९५ सेठ सुदर्शन जंबू स्वामी, गज कुमार आदि गुण-धामी। पुत्र होय तो या विधि को है, अर कबहूं पुत्री हो जो है ॥९७ तो सुशील सौभाग्यवती अति, नेम धरम परवीन हंस गति । बाल सुब्रह्मचारिणी शुद्धा, ब्राह्मी सुन्दरि सी प्रतिबुद्धा ।।९८ चन्दन बाला अनन्तमतीसी, तथा भगवती राजमतीसी । अथवा पतिव्रता जु पवित्रा, हसुशील सीतासी चित्रा ॥९९ के सुलोचना कौशल्या सी, शिवा रुकमनी वीशल्या सी। नीली तथा अंजना जैसी, रोहणि द्रौपद सुभद्रा तैसी ॥१०० अर जो कोऊ पापाचारी, पंच दिवस वीतें बिन नारी। सेवे विकल अन्ध अविवेकी, ते चंडालनि हते एको ॥१ अति ही घृणा उपजै ता समये, तातें कबहुं न ऐसे रमिये । फल लागै तौ निपट हि विकला, उपजै संतति सठ बे-अकला ॥२ सुत जन्में तो कामी क्रोधी, लापर लंपट धर्म विरोधी । राजा बक बसु से अति मूढ़ा, ग्रन्थनि माहिं अजस आरूढा ॥३ सत्यघोष द्विज पर्वत दुष्टा, धवल सेठ से पाप सपुष्टा। पुत्री जन्में तोहो कुशीली, पर-पुरुषा रति अवहीली ॥४ राव जसोधर की पटरानी, नाम अमृतादेवि कहानी। गई नरक छ? पति मारे, किये कुबज सों कर्म असारे ॥५ रात्रि विर्षे कपरा है नारी, तो इह बात हिये में धारी । पंच दिवस में सो निसि नाहीं, ता बिन पंच दिवस श्रुत माहीं॥६ इह आज्ञा धारौ तजि पापा, तब पावो आचार निपापा । अब सुनि गृहपति के षट् कर्मा, जो भा जिनवर को धर्मा ।।७ निज पूजा अर गुरु की सेवा, पुनि स्वाध्याय महासुख देवा । संजम तप अर दान करो नित, ए षट् कर्म धरौ अपने चित ॥८ इन कर्मनि करि पाप जु कर्मा, नासें भविजन सुनि निज धर्मा । चाकी उखरी और बुहारी, चूला बहुरि परंडा धारी ॥९ हिंसा पांच तथा घर धन्धा, इन पापनि करि पाप हि बंधा। तिनके नासन कों षट कर्मा. सभ भावें जिनवर को धर्मा ॥१० ए सब रीति मूल गुण माहीं, भाषे श्री गुरु संस नाहीं। आठ मूल गुण अंगीकारा, करौ भव्य तुम पाप निवारा ॥११ अर तजि सात विसन दुखकारी, पाप मूल दुरगति दातारी। जूवा आमिष मदिरा दारी, आखेटक चोरी पर नारी ॥१२
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