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श्रावकाचार-संग्रह
मरयादा धरवि आहार, चारों को करि परिहार । तियको सेवे दिन नाहीं, छट्ठी प्रतिमा सो धरांही ॥४९ प्रतिमा छह तो जो जीव, समकित जुत धरै सदीव । तिह श्रावक जघन्य सुजाणि, भाषै इम जिनवर वाणि ॥५० श्रेणिक नृप प्रसन कराही, श्री गौतम गणधर पाहीं । ब्रह्मचर्य नाम प्रतिमा की, कहिये प्रभु कथन सु ताको ॥५१ सुनिये अब श्रेणिक भूप, सप्तम प्रतिमा को सरूप । मन वच क्रम धारि त्रिशुद्ध, नव विधि जो शील विशुद्ध ॥५२ निज पर बनिता सब जानी, आजनम पर्यन्त तजानी । अब नव विधि शील सुनीजे नित ही तसु हृदय गणीजे ।।५३ मानवणी सुर-तिय जाणी, तिरयंचणी त्रितय बखाणी । ये तीनों चेतन वाम. मन वच क्रम तजि दख धाम ॥५४ पाषाण काठ चित्राम, तजिये मन वच परिणाम । नव विधि ब्रह्मचर्य धरीजे, सप्तम प्रतिमा आचरीजे ॥५५ निज घर आरम्भ तजेई, परकों उपदेश न देई । भोजन निज पर घर माहीं, उपदेश्यो कबहु न खाहीं ॥५६ व्यापार सकल तजि देई, सो स्वर्गादिक सुख लेई । प्रतिमा इह अष्टम नाम, आरम्भ-त्याग अभिराम ॥५७ नवमी प्रतिमा सुनि जान, नाम जु परिगह परिमान । निज तनपै वसन धराही, पठने को पुस्तक ठाहीं ॥५८ इन बिन सब परिग्रह त्याग, मध्यम श्रावक बड़ भाग । दिव लांतब अर कापिष्ठ, तह लों सुख लहै गरिष्ठ ॥५९ प्रतिमा अनुमति तस नाम, दशमी दायक सुख धाम । उपदेश न निज घरि परि-गेह, ले जाय असन को जेह ॥६० तिनके सो भोजन लेह, उपदेश्यो कबहु न खं है। निज जन अरु परजन सारे, उपदेश न पाप उचारे ॥६१ जाको परिग्रह मुनि लेई, पीछी कमंडल सु धरेई । कोपीन कणगती जाके, छह हाथ वसन पुनि ताके ॥६२ एती परिगह मरजाद, गहि है न अवर परमाद । एकादश प्रतिमा धारै, भाखै जिन दुय परकारै ॥६३ प्रथमहि क्षुल्लक ब्रह्मचार, उत्कृष्ट ऐलक निरधार । क्षुल्लक संख्या परमाण, कपडो षट हाथ सुजाण ॥६४ इकपटो न सीयो जाके, कोपीन कणगती ताकै । कोमल पीछी कर धारे, प्रति लेखि रु भूमि निहारै ॥६५ शौचादि निमित्त के कार्ज, कमंडल ताके ढिग बाजे। आहार निमित्त तसु जानी, मुकते घर पंच बखानी ॥६६
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