________________
३४३
दौलतराम-कृत क्रियाकोष के अनसन अघ नाश कर, के यह अवमोदर्य । इन सम और न जगविष, ए तप अति सौंदर्य ॥५९ इन बिन कदै न जो रहे, सो पावै ब्रतशुद्धि । ध्यान कारणें जो करै, सो होवे प्रतिबुद्ध ॥६० अरु जो मायावी अधम, धरि कीरतिको लोभ । करै सु अलप अहारकों, सो नहिं होइ अक्षोभ ॥६१ अथवा जो शठ अंधधो, यह विचार जियमाहिं । करै सु अलप अहार जो, सोहू व्रतधरि नाहि ।।६२ जो करिहों जु अहार अति, तो जैसो तैसो हि । मिलि हैं मोदक स्वादकरि, ताक् इह न भलौ हि ॥६३ अलप अहार जु खाहुंगो, बहुत रसीली वस्तु । इहैं भाव धरि जो करै, सो नहिं व्रत्त प्रशस्त ॥६४ मिष्ट भोज्य अथवा सुजस, कारण अल्प अहार । करे न फल तपको प्रबल, कर्म निर्जराकार ॥६५ केवल आतमध्यानके, अर्थ करै व्रत धार । कै स्वाध्याय सु व्रतके, कारण अल्प आहार ॥६६ अल्प अहार-थकी बुधा, रोग न उपजे क्वापि । निद्रा मनमथ आदि सहु, नहिं पीरै जु कदापि ॥६७ बहु अहार सम दोष नहिं, महा रोगकी खानि । निद्रा मनमथ प्रमुख जो, उपजै पाप निदान ॥६८ लोकमाहिं कहवत इहै, मरै मूढ़ अति खाय । के विन बुद्धि जु बोझकों, भोंदू मरै उचाय ॥६९ तातें धनों न खाइवौ, करिबो अलप अहार। याहि करैं सतगुरु सदा, व्रतको बीज अपार ॥७० व्रतपरिसंख्या तीसरो तप ताकों सु विचार । सुनों सुगुरु भा भया, परम निर्जराकार ॥७१ मुनि उतरें आहारकों, करि ऐसी परतिज्ञ । मनमें तौक छांटकों (?) सो धारो तुम विज्ञ ॥७२ एक घरें नहिं पाय हो, तो न आन घर जाहुँ। और कछू नहिं खाय हों, यह मिलि हैं तो खाहुं ॥७३ अथवा ऐसी मन धरै, या विधिके तन चीर । पहिरे होंगी श्राविका, तो लेहूँ अन नीर ।।७४ तथा विचारै सो सुधी, कारों बलधा जोहि । धरै सींग परि गुड़-डला, मिले पंथमें मोहि ॥७५ जाऊँ भोजन कारनें, नांतरि नहीं अहार । इत्यादिक जे अटपटी, करै प्रतिज्ञा सार ॥७६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org