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________________ ६९ किशनसिंह-सात क्रियाकोष अधिक महोत्सव कीनो सार, सो श्रावक को माचार। वस्त्रादिक आमरण अपार, सब परिजन संतोषे सार ॥८७ अनुक्रम बरस सातकों भयो, पंडित पास पठन कों दयो। शास्त्र कलामें भयो प्रवीन, श्रावक व्रत जुत समकित लीन ॥८८ जोवनवंत भयो सुकुमार, व्याहन कीनो धरम विचार । एक दिवस वन क्रीड़ा गयो, बड़ तरु बिजरीतें क्षय भयो ॥८९ देख कुमर उपजो वेराग, अनुप्रंक्षा भाई बड़ भाग। चन्द्रकीति मुनि के ढिग जाय, दीक्षा लीनी तब सुखदाय ॥९० बाहिर आभ्यन्तर चौबीस, तजे ग्रन्थ मुनि नाये सीस। पंच महावत गुपति जु तीन, पंच समिति धारी परवीन ॥९१ इम तेरा विध चारित सजे, निश्चय रत्नत्रय सु भजे । सुकल ध्यान-बल मोह विनास, केवल ज्ञान ऊपज्यो तास ॥९२ भवि उपदेशे बहुविधि जहां, आयु करम पूरण भयो तहां । शेष अघातिय को करि नास, पायो मोक्षपुरी सुख वास ॥९३ सवैया मोह कर्म नास भये प्रसमत्त गुण थये, ज्ञानावर्ण नास भये ज्ञान गुण लयो है, दसण आवरण नास भयो दंसण, सु अन्तराय नासतें अनन्तवीर्य थयो है। नाम कर्म नास भये प्रगटयो सुहुमत्त गुण, आयु नास भये अवगाहण जु पायो है, गोत्रकर्म नास किये भयो है अगुरुलघु, वेदनीके नासें अव्याबाघ परिणयो है ॥९४ दोहा विवहारे वसु गुण कहे, निश्चै सुगुण अनन्त । काल अनन्तानन्त तिते, निवसें सिद्ध महन्त ॥९५ चौपाई इह विधि भवि दर्शन जुत सार, पाले श्रावक व्रत-आचार । अर मुनिवरके व्रत जो धरै, सुर नर सुख लहि शिव-तिय वरै ॥९६ निशि-भोजनतें जे दुख लये, अरु त्यागे सुख ते अनुभये । तिनके फलको वरनन भरी, कथा अणथमी पूरण करी ॥९७ दिवस उदय द्वय घड़ी चढ़त पीठे ते लेकर, अस्त होत द्वय घड़ी रहे पिछलौ एते पर। भोजन जे भवि कर तर्जे निशि चार अहार ही, खादिम स्वादिम लेप पान मन वच कर वारही ॥ सो निशि भोजन तजन वरत नित प्रति जो जिनराज बखानियो। इह विधि नित प्रति चित्त धरि श्रावक मन जिहिं मानियो ॥९८ चित्रकूत्र गिरि निकट ग्राम मातंग वसे तहें, नाम जागरी जान कुरंग चंडार तिया तहै । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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