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पदम-कृत श्रावकाचार
जिनदत्त श्रेष्ठी इ सांभल्यो हो, कन्या धूती गयो धूर्त । प्रपंच रचि विवाही गयो हो, कपट पणे बौद्ध वृत्त, हो जीवड़ा ।।४५ हा, कन्या रत्न मुझ तणु हो, लेइ गयो बौद्ध भाग । जानें समुद्र माहे पडयो हो, अथवा कप अथाग, हो जीवड़ा ॥४६ कन्या रत्न मुझ तणों हो, दैवे उदा लीने लीध । मिथ्याती घरि काइ पडयो हो मोटो पातक कीध, हो जीवड़ा ॥४७ जैन विना निज पुत्री ने हो, मिथ्याती में जे देय। ते अज्ञानी महापापी आ हो, बहु जन्म दुख ते लोय, हो जीवड़ा ॥४८ कूप माहे घाले वावारु हो, अथवा दीने वारु विष ।। एक भव ते दुक्ख दीये हो, मिथ्याती बहु भव दुःख, रे जीवड़ा ॥४९ मिथ्याती में जो दीजिइ हो, तो करे मिथ्यात बुद्धि । जिनधर्मी ने जो दीजिइ हो, तो होइ धर्म सन्तान शुद्धि, हो जीवड़ा ॥५० जो जैन ने परिहरि हो, द्रव्य तणों करि लोभ । मिथ्यादृष्टि में जो देइए हो, तो होय निजधर्म क्षोभ, हो जीवड़ा ॥५१ इम जाणी जत्न करी हो, कन्या रत्न मनाख । साधर्मी दानज दीजिये हो, अथवा दीक्षा कार्ज संख, हो जीवड़ा ||५२ सुसरो केहो बहु धर्म करो, हो, बौद्ध तणी करो सेव । ज्ञानवंत गुरु अम्ह तणा हो, परतक्ष जाणे सहु हेव, हो जीवड़ा ॥५३ भोजन काजे नोंतरा हो, आव्या बौद्ध ततकाल । एकेकी पगखरी तणों हो, कीधो व्यंजन रसाल, हो जीवड़ा ॥५४ जीम करी ते संचर्या हो, एकेकी खुरीउ न वि देख । पूछ कहो किहां पगखी हो, अरूं परू इम जोइ रे, हो जीवड़ा ॥५५ नीली कहे तम्हें ज्ञानें जोउ हो, निज उदर छै मझार । अन्न वमी तिणें जोइयो हो, देख्या खंड तिणी वार, हो जीवड़ा ॥५६ तब लाज्या ते बापड़ा हो, बौद्ध गया निज मट्ठ । बौद्ध मान भंग जाणीने हो, सजन करे तस हट्ठ, रे जीवड़ा ॥५७ जुदी उ रीते मूकिया हो, रहे ते स्त्री भरतार । निश्चल मन नीली तणुं हो, धर्म न मूके सार, हो जीवड़ा ॥५८ कंत पिता मणी सहोदरी हो, रोसे दीओ तस आल । नीली ए पर नर सेवियो हो, जाणे उवी विषझाल, हो जीवड़ा ॥५९ हलुले हलुओ दोष विस्तरे हो, नीली तणो लोक मांहि । नीली निज कानें सांभल्यो हो, कर्म-तणां फल चाहि, हो जीवड़ा ॥६० जिन-आगल कायोत्सर्ग धरी हो, द्विविध लीयो संन्यास । यो दोष टले तो पारणुं हो, नहीं तो प्राण-विनास, रे जीवड़ा ॥६१ पुर देवी आसन कंपीयो, सती य शील प्रभाव। अवधिज्ञाने जाणीने हो, नीली पासे देवी आव, रे जीवड़ा ॥६२
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