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________________ पदम-कृत श्रीवकाचार जिन शासन मांहे तिम आनन्दा, बहु भेदें कवि होइ तो। हीन अधिक बुद्धि पणे आनन्दा, बुद्धि कर्म सारुं जोइ तो॥३१ रास भास एह सांभलो, आनन्दा, मुझ स्यूं म करस्यो रोष तो। जांण होइ ते गुण ग्रह ज्यों आनन्दा, अजांण सहे बहु दोष तो॥३२ सज्जन गुणं सदा ग्रहे आनन्दा, जिम नीर थी क्षीर हँस तो। दुर्जन पर-दूषण लाए, आनन्दा, जलों रक्त देइ दस तो ॥३३ श्रावकाचार सागर तणुं आनन्दा, बहु भेदें विस्तार तो। बलहीन हस्ते बिहु, आनन्दा, किम करी उतरें पार तो ॥३४ शारदा माय मुझ निर्मली आनन्दा, ज्ञान धन दातार तो। तुझ पसाये में वर्णव्यू आनन्दा, रूअडो श्रावकाचार तो॥३५ पद अक्षर अर्थ बहु, आनन्दा, शब्द गुण चूको छंद तो। प्रमाद पणे जे बोलियो आनन्दा, हूँ मानवी मतिमन्द तो ॥३६ होन अधिक जे में कर्यु आनन्दा, जिन आगम विरोध तो। ते मुझ खमियो शारदा, आनन्दा, हूँ तुझ बोलु मन्द बुद्धि तो ॥३७ विद्वान्स होइ तो सोधज्यो आनन्दा, मुझ तूं करी कृपा भाव तो। जिम हेम अग्नि सोधिये आनन्दा, उपनों जे शुभ ग्राम तो ॥३८ पंडित जे सोधे नहीं आनन्दा, मन धरि जे अहंकार तो। ते वृथा तस जाण तो, आनन्दा, जस बाजे वंस निसार तो॥३५ सरोवरे जिम कमल ऊँगे, आनन्दा, सुगन्ध विस्तारे पवन्न तो। तिम कविसु कवित्त रच्यो आनन्दा, विस्तार पमाडे सज्जन्न तो॥४० मूल नदी थोड़ी जिम, आनन्दा, वाधे सागर लगें जाण तो। सज्जन मेह गुण नीर, आनन्दा, जिन शासन प्रमाण तो ॥४१ सज्जन विना ना पुस सदा, आनन्दा, उत्तम श्रावकाचार तो। ज्यां लगे चन्द्र सूर्य तारा, आनन्दा, त्यां लगें शासन उद्धार तों॥४२ कोमल पणे सहँ प्रीछवा आनन्दा, निज पर तणों उपकार तो। केवल धर्म वृद्धि कीजे आनन्दा, रच्यो में श्रावकाचार तो ॥४३ श्रावकाचार ते रत्नदीप आनन्दा, पन क्रिया चिन्तारत्न तो। सुगुण रत्न मूल्य नहीं, आनन्दा, दया करो तस जत्न तो ॥४४ एक चिन्तामणि जे लहे, आनन्दा, जाव जीव सुख होय तो। एका क्रिया गुण जो पाले, आनन्दा, तो स्वर्ग सुख लहे तेह तो ।।४५ इम जाणी भव्य सदा पालें आनन्दा, सर्व क्रिया रत्न जेह तो। सोलमां स्वर्ग लगे सुख लहे, आनन्दा, पक्षे मोक्षश्री वरे तेह तो ॥४६ जेणे पाल्यो, पाले छ, पालसे आनन्दा, निश्चल श्रावक धर्म तो। मन वच काया दृढ़ करी आनन्दा, ते पामें शिव शर्म तो ॥४७ नर नारी भावे करी, आनन्दा, इणि परे पाले आचार तो। दुष्कर्म सहु हरे करो आनन्दा, ते तरसी संसार तो ।।४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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