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पदम-कृत श्रावकाचार
कर्मतणें उपराम होइए, सुणे सुन्दरे, अथवा क्षय उपशम । मा० कर्मक्षय की उपजे ए, सुणे सुन्दरे, निसर्ग दृष्टि उत्तम । मा० | १८३ गुरु उपदेशें पामीय ए, सुणे सुन्दरे, करतां तत्त्व अभ्यास । भणतां सुणतां अधिगम ए, सुणे सुन्दरे, उपजे चित्त उलास | मा० ॥८४ जिन प्रतिमा प्रासाद देखीय ए, सुणे सुन्दरे, पेखी महिमा सासन्न । मा० पूजा प्रतिष्ठा जात्रा आदि ए, सुणे सुन्दरे, ऋद्धि वृद्धि यति जन्न । मा० ॥८५ देवा अतिशय देखि करी ए, सुण सुदन्रे, तीव्र तप दान ज्ञान । मा० तत्त्व जाणी अधिगम होइ ए, सुणे सुन्दरे, करतां गुण-आख्यान । मा० ॥८६ श्रद्धा समकित सेवी ए, सुणे सुन्दरे, निसर्ग दृष्टि अधिगम | मा० निर्मल मूल गुण कारण ए, सुणे सुन्दरे, शुद्ध भावे ते उत्तम | मा० ॥८७
वस्तु छन्द
शुद्ध भाव करो, शुद्धभाव करो, भविजण इणि परे । श्रावक जती धर्मकारण, तारण संसार सागर निर्भर । स्वर्ग मोक्ष फल दायक, नायक समकित सार मनोहर ॥
अनुदिन जे जन अनुसरे, घरे जे समकित रत्न । जिन सेवक पदमो कहे, तेह तणों करो जत्न ॥१
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अथ भास जसोधरनी
भाव घरी भव्य सांभलो ए, सुभ समकितभेद । उपशम वेदक क्षायिक, जेम कह्यो जिनदेव ॥२ समकित रत्न गुणघातक, प्रकृति जाणों सात । मिथ्यात्व मिश्र सम्यक्त्व प्रभृति, दर्शनमोहतणी ख्यात ।। ३ अनादि काल अनन्तानुबन्धी, क्रोध मान माया लोभ । शिला अस्थि वंश तणो मूल, लाख रंग सम लोभ ॥ ४ मिथ्यात्व उदयें मिथ्यात्व हुइ, पाले नहीं जिनधर्म । मिथ्यात देव गुरु शास्त्र तणी, सेवा नीच कर्म ॥५
मिश्र प्रकृति त विपाके, मिश्र होइ परिणाम । देव अदेव गुरु कुगुरु, सारिखा परिणाम ॥६ देवता लक्षण सुणो, देव जाणों अरिहन्त । इन्द्रादिक पूजा करे, कर्म अरि करे अन्त ॥७ चोत्रीस अतिशय निर्मला, अष्ट प्रतिहार्यवन्त । अनन्तचतुष्टय ऊजला, छियालीस गुणसन्त ॥८ समोसरण लक्ष्मी भली, सेवा करे शत इन्द्र । धर्मापदेश देइ सदा, इह वा ध्याओ जिनेन्द्र ॥९ देवदूषण थी वेगला, सुणो दोष अठार । क्षुधा तृषा नहीं जेहं नइ, नहीं भय रोग लगार ||१० राग मोह चिन्ता नहि, जरा मृत्यु नहीं जन्म । खेद स्वेद मद रति नहीं, नहीं निद्रा रोगकर्म ॥११ विस्मय विखवाद जेहने नहीं, एह दोष अठार । अवर अवगुण पण कोय नहीं, ते देव भवतार ॥१२ एह वा जिनदेव सेवी ए, पूजीए जिनचरण । मुक्तिनारीवर निर्मला, भव-तारण तरण ॥१३ गुरुआ गुरु सेवो गुणवन्त, गुरु जाणो निर्ग्रन्थ । धर्मोपदेश दीये ऊजलो, देखाडे मोक्ष पन्थ ||१४ अभ्यन्तर बाह्यतणा नहीं, परिग्रह चौबीस । नग्न मुद्रा धरे निरमली, दिगम्बर जति ईश ||१५ चारु चारित्र धरे तेरस भेद, अट्ठावीस मूलगुण । दशलक्षणधर्म-धारक, तप बारस निपुण ॥१६ सम दम सूधो आचरइ, जीती इन्द्री मदमार । क्रोध मान माया लोभ नहीं, नहीं राग द्वेष विकार ॥ १७ भव-सागर जे तरे तारे, जेम अच्छिद्रनाव । सेवो गुरु गुण उत्तम, हृदय आणी शुभ भाव ||१८
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