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________________ दौलतराम - कृत क्रियाकोष जो जिनमंदिर कारनें, धरती देय सु वीर । सो पावे अष्टम धरा, मोक्ष काम गंभीर ॥५१ उविधि संघनिकी भया, मन वच तनकरि भक्ति । करे हरै पीरा सबे, सो पावे निजशक्ति ॥५२ सप्त क्षेत्र ये धर्मके, कहे जिनागमरूप । इनमें धन खरचे बुधा, पावै वित्त अनूप ॥५३ are aafter Jain Education International प्रतिमा करावें, देवल करावे, पूजा तथा प्रतिष्ठा करें, जिन तीरथकी यात्रा करै शास्त्र लिखावे, चउविधि संघकी भक्ति करें ए सप्त क्षेत्र जानि । यहां कोई प्रश्न करें, प्रतिमाजी अचेतन छै, निग्रह अनुग्रह करवा समर्थ नाहीं, सो प्रतिमाका सेवनथकी स्वर्गमुक्ति फलप्राप्ति किसी भाँति होय ? ताका समाधान । प्रतिमाजी शांत स्वरूपने धार्या छै ध्यानकी रीतिने दिखावे छै । दृढ़ आसन, नासाग्र दृष्टी, नगन, निराभरण, निर्विकार जिसौ भगवानको साक्षात् स्वरूप छै तिस्यौ प्रतिमाजीने देख्यां याद आवे छे। परिणाम ऐते निर्मल होइ छे । अर श्रीप्रतिमाजीने सांगोपांग अपना चितमैं ध्यावै तो वीतराग भावने पावें । यथा स्त्रीको मूरति चित्रामकी, पाषाणकी काष्ठादिक्की देखि विकारभाव उपजै छै, तथा वीतरागकी प्रतिमाका दर्शनथको ध्यानथकी निर्विकार चित्त होइ छै । अर आन देवकी मूरति रागी द्वेषी छे । उन्मादने धारै छै सो वाका दरशन ध्यान करि राग द्वेष उन्माद बढै छै । तीसौं आराधवा जोग्य, दरसन जोग्य, ध्यान जोग्य जिनप्रतिमा ही छे । जीवांने भुक्ति, मुक्तिदाता छे । यथा कलपवृक्ष, चितामणि औषधि मन्त्रादिक सर्व अचेतन छै, पणि फलदाता छै, तथा भगवतकी प्रतिमा अचेतन छै, परन्तु फलदाता छै । ज्ञानी तो एक शांतभावका अभिलाषी छे । सो शांतभावने जिनप्रतिमा मूर्तवन्त दिखावे छे। तीसूं ज्ञानी जनांने सदा वन्दिवा ध्यावा जोग्य छे। अर जगतका प्राणी संसारीक भोग चावै छे । सो जिन प्रतिमाका पूजनथकी सर्व प्राप्ति होय छै । ऐसो जानि, हित मानि, संशय भानि जिनप्रतिमाकी सेवा जोग्य छे । । 1 कवित्त श्रीजिनदेवतनी अरचा अर साधु दिगम्बरकी अतिसेव । श्री जिनसूत्र सुनै गुरु सन्मुख, त्यागै कुगुरु कुधर्म कुदेव ॥५४ धारे दान शील त्तप उत्तम, ध्यावै आतमभाव अछेव । सो सब जीव लखे आपन सम, जाके सहज दयाकी टेव ॥५५ दातनी विधि है जु अनन्त, सवै महिं मुख्य किमिच्छक दाना । ताके अर्थ सुनूं मनवांछित, दान करे भवि सूत्र प्रवाना ॥५६ तीरथकारक चक्र जु धारक, देहि सकें इह दान निधाना। और सबै निज शक्ति प्रमाण, करें शुभ दान महा मतिवाना ॥५७ सोरठा को कुबुद्धी कूर, चितवै चितमें इह भया । हि धन अतिपूर, तब करिहूं दानहि विधी ॥५८ ३७९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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