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श्रावकाचार-संग्रह
तिनको वर्णन प्रथम ही, अतिथि विभाग मंझार । कियो अबै पुनरुक्तके, कारण नहिं विसतार ॥३५
सप्तक्षेत्र अर्णन जो करवावै जिनभवन, धन खरचे अधिकाय । सो सुर नर सुख पायक, लहै धाम जिनराय ॥३६ जो करवावै विधिथकी, जिनप्रतिमा बुधिवन्त । मन्दिरमैं पधरावई, सो सुख लहै अनन्त ॥३७ यव-समान जिनराजकी, प्रतिमा जो पधराय । किंदूरीसम देहुरो, सोहू धन्य कहाय ।।३८ शिखर बंध करवावई, जिन चैत्यालय कोय । प्रतिमा उच्च करावई, पावे, शिवपुर सोइ ॥३९ जल चंदन अक्षत पहुप, अर नैवेद्य सुदीप । धूप फलनि जिन पूजई, सो ह्व जग अवनीप ॥४० जो देवल करि विधिथकी, करै प्रतिष्ठा धीर । सुर नर पतिके भोग लहि, सो उतरै भवतीर ॥४१ जो जिन तीरथको महा, यात्रा करै सुजान । सफल जनम ताही तनों, भाषपुरुष प्रधान ॥४२ चउ अनुयोगमई महा, द्वादशांग अविकार । सो जिनवाणी है भया, करै जगतथी पार ॥४३ ताके पुस्तक बोधकर, लिखै लिखावै शुद्ध । धन खरचै या वस्तु में, सो होवै प्रतिबुद्ध ॥४४ ग्रन्थनिकू पूठे करै, करवावै धरि चित्त । भले भले वस्त्रनि विर्षे, राखै महा पवित्त ॥४५ जीरणि ग्रन्थनिके महा, जतन करै बुधिवान । ज्ञानदान देवै सदा, सो पावै निरवान ।।४६ जीरण जिनमंदिरतणी, मरमत जो मतिवान । करवावै अति भक्ति सों, सो सुख लहै निदान ।।४३ शिखर चढ़ावै देहुरा, धन खरचे या भांति । कलश धरै जिनमंदिरां, पावै पूरण शांति ।।४८ छत्र चमर घंटादिका, बहु उपकरणां कोय । पधरावै चेत्यालये, पावै शिवपुर सोय ।।४९ टीप कराव द्रव्य दे, धवलावै जिनगेह । धुजा चढ़ाव देवलों, पावै धाम विदेह ॥५०
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