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________________ सम्पादकोय वक्तव्य श्रावकाचार-संग्रहका यह पंचम भाग पाठकोंके कर-कमसोंमें उपस्थित करते हुए मुझे महान् हर्ष हो रहा है । ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवनमें पदम कविकृत 'श्रावकाचार'की एक प्रति विद्यमान है, उसे देखकर और पढ़कर उसकी महत्ताने हृदयपर यह प्रभाव अंकित किया कि इसका भी प्रकाशन हो जाना चाहिए। उसमें यतः श्रावकको ५३ क्रियाओंका वर्णन किया गया है अत: पं. किशनसिंह जो और पं० दौलतरामजोके क्रियाकोषोंको प्रस्तुत संग्रहमें संकलन करनेको भावना उत्पन्न हुई और गत वर्ष इसी मईमें श्रद्धेय, परम पूज्य मुनि श्री १०८ समन्तभद्र जी महाराजके चरण-सान्निध्यमें कुम्भोज पहुंचा। वहाँपर संस्थाके मानद मंत्री श्री वालचन्द्रजी देवचन्द्रजो शहा पहिलेसे ही उपस्थित थे। तथा श्री. पं० माणिकचन्द्रजी चदरे कारंजा, श्री ब्र० पं० माणिकचन्द्रजी भिसीकर और श्री रायचन्द्रजीकी भक्त मण्डली भी मौजूद थी। उन सबके सामने मैंने उक्त तीनोंका प्रकाशन श्रावकाचार-संग्रहके पांचवें भागके रूपमें करनेका प्रस्ताव रखा। सबके द्वारा समर्थन और अनुमोदन किये जानेपर संस्थाके मंत्रीजीने प्रकाशनकी स्वीकृति दो और इस विषयमें जीवराज-ग्रन्थमालाके प्रधान सम्पादक श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीके साथ परामर्श करनेको कहा । यथा समय मैने उनसे परामर्श किया और तदनुसार हिन्दी छन्दोबद्ध श्रावकाचारोंका यह पाँचवाँ भाग पाठकोंके सामने उपस्थित है। हिन्दी भाषामें रचित होनेसे उनका अर्थ देनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई । पदम कविरचित श्रावकाचारका सम्पादन ऐ० सरस्वती भवनकी एक मात्र प्रतिके आधारपर हुआ है । प्रयत्न करने पर भी अन्य स्थानसे दूसरी प्रति उपलब्ध नहीं हुई। शेष दोनों क्रियाकोषोंका सम्पादन पूर्व-मुद्रित प्रतियोंके आधारपर हुआ है और उसमें किशनसिंहजीके क्रियाकोषका संशोधन श्रीमान् सर सेठ भागचन्द्र जो सोनी अजमेरके निजी भंडारकी हस्तलिखित प्रतिके आधारपर हुआ है। पं० दौलतरामजीके क्रियाकोषका संशोधन ऐ० सरस्वती भवनको हस्तलिखित प्रतिके आधारपर हुआ है, अतः हम उक्त सभीके आभारो हैं। इस भागके शीघ्र प्रकाशनार्थ गतवर्ष नवम्बरमें में वाराणसी आया । एक मासके बाद ही मैं दमेसे बीमार पड़ गया और देश वापिस जाना पड़ा । दमेके शान्त होते हो हृदय-रोगसे पीड़ित गया और कुछ स्वस्थ होते ही पुनः वाराणसो मार्चके प्रारम्भमें आया । कमजोरी अधिक होनेसे श्रीमान् पं० फूलचन्द्रजो सिद्धान्तशास्त्री और महावीर प्रेसके मालिक पं० बाबूलालजी फागुल्ल एवं अन्य वाराणसो-स्थित विद्धानोंने मुझे सर्व प्रकारसे संभाला और स्वास्थ्य-लाभमें सहायक बने । इसके लिए मैं उक्त सभी विद्वानोंका बहुत आभारी हूँ। संस्थाके मानद मंत्री श्रीमान् सेठ बालचन्द्र देवचन्द्र शहा और ग्रन्थमालाके प्रधान सम्पादक श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्रीका आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने पत्रोंके द्वारा एवं मौखिक सत्परामर्श देकरके समय-समयपर मुझे अनुगृहीत किया है। वर्धमान मुद्रणालयने तत्वरताके साथ इसका मुद्रण किया है इसके लिए में आप सबका आभारी हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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