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________________ ३४ श्रावकाचार-संग्रह भरत क्षेत्र मझार अवन्ती देश, उज्जेणी पुरी श्री ब्रह्म नरेश, श्रीमती रानी तणु ईशा ॥५ बलि वृहस्पति नाम प्रधान, प्रल्हाद, नमुचि अभिधान, ए चार मंत्री राजान ॥६ राजा छै जिनधर्मी सार, मिथ्यादृष्टि मंत्री गभार, सर्प व्याघ्र वदन जिम फार ॥७ नगर तणां उद्यान मंझार, आव्या अकम्पन गुणधार, सात से मुनि परिवार ॥८ सहि गुरु कहे ते ज्ञान भण्डार, संघाष्टक सहुं सुणो भवतार, मौनि रहिज्यो इणि वार ॥९ कवण साथे बोलो जे सार, तो होसे सही संघार, गुरु आज्ञा मुनि धार ॥१० गुरु-आज्ञा माने नहीं जेइ, कुत्सित शिष्य जाणों तमें तेह, जनक पीड़ा कुमित्र ॥११ नयर जन गुरु वंदन जाइ, देखी पूछे मंत्री राइ, कवण काजे पुर जन्न ॥१२ वलतुं बोले मंत्री ते वाणि, स्वामीने गुरु आव्या जाणि, निग्रन्थ गुरु गुण खानि ॥१३ तब राजाने आपनों भाब, गरु वंदं भव-सायर नाव, सजन सहित भप चाल्यो ।।१४ केता रहीया ऊभा लेइ ध्यान, केता बैठा मन शभ स्थान, निश्चल मेरु-समान ॥१५ गुरु देखी हरष्यो भूपाल, प्रत्येक प्रत्येक वंद्या गुणमाल, सीस न कहो तिणि वार ॥१६ वंदी स्तवी जाइ तिणी वार, तब ते मंत्री करे अहंकार, जाणे मुनि नहि कांई विचार ॥१७ आवतो साम्हों दीठो मुनि ऐक, मंत्री न जाणे कांइ विवेक, उदर पूरी आव्यो विशेष ॥१८ तब मुनि बोल्यो स्याद्वाद, वाद करोओ तास्यों वाद, मंत्री पाम्या विषवाद ॥१९ मुनि आवी गुरु बंद्या जैवन्त, वाद तणु कहियो वृत्तान्त, रुडु न कीयो वच्छसंभ ॥२० जइ रहो तमें वादने ठाम, तो टले उपसर्ग उद्दाम, सयल मुनि गुणग्राम ॥२१ श्रुतसागर तब पाछो जाय, वाद स्थाने रही निश्चल थाय, मेरु समी निज काय ॥२२ तब आव्या रात्रे परधान, मिथ्यादृष्टि ते अज्ञान, मूढ धरे बहु मान ॥२३ कभो रहियो ते मुनिवर देखी, क्रोध धरे ते अवरउ वेषी, तीखी खडग तणी धार ॥२४ मुनि मारेवा मंत्री चार, खडग घात दीया एकी वार, मुनि कंठे दुःखकार ॥२५ मुनिवर स्वामी पुण्य-प्रभावे, आसन कंपे पुर देव ते आवे, सार्यां काज गुण भावे ॥२६ ऊर्ध्व हस्त खडग मंत्री म्या, प्रभात समय देखी लोक अचंम्या, दुर्वचने मंत्रो क्षोभ्या ।।२७ समंध सुणि आव्यो सिहां राय, मंत्री देखि कोप तसथाम, प्रणमी रया मुनि पाय ॥२८ भप कहे मंत्री तमों इष्ट, कांइ अपराध कीयो कनिष्ट; हवे करू निज राज भ्रष्ट ।।२९ देव खमी मुकाव्या मंत्री, अधम विप्र मारे किम क्षत्रो, शत्रु पणे कृपा ऊपजी ॥३० सांचा नर जे होइ साध, ते क्षमें पर-तणु अपराध, केहने करे नहीं बाध ॥२१ अग्नि दहन्ते अगर हरिचन्दन, सुगन्धवास करे मन नन्दन, तिम सज्जन सहतो वेदन ॥३२ अ विधि पुरी बैठा गुणधार, सुर नर वंदि करे जयकार, धर्म वृद्धि कही भवतार ॥३३ भूपे मंत्री दंड बहु दीयो, निभ्रंछन विडंबन कीयो, देश छेह करी धन लियो ॥३४ तुरत पाप लागो परधान, राजभ्रष्ट थया अपमान, पाम्या दुःख निधान ॥३५ मुनिवर स्वामी क्षमा भंडार, परीषह जीती सोहता संघ मझार, घर गया जन परिवार ॥३६ कुरुजांगल नामे शुभ देश, हस्तिनगर महापद्म नरेश, लक्ष्मीमतो नारी जीवेश ॥३७ पुत्र दोय हुअ पद्म बिष्णु नाम, रूप कला यौवन गुणग्राम, अनुभवे सुख उद्दाम ॥३८ महापद्म पाम्यो वैराग, पद्म राज थापी कर्यो संग त्याग, सांचो संत शिव राग ॥३९ वन जाय वंद्या श्रुत मुनिसागर, दीक्षा लीधी महिमा आगर, सहित विष्णु कुमार ॥४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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