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________________ ३१४ श्रावकाचार-संग्रह इन तजिसी व्रत निर्मल होई, तातें तजे धन्य हैं सोई। गुणव्रत काहेतें जु कहाये, ताको अर्थ सुनों मनलाये ॥६२ पंच अणुव्रतकों गुणकारी, तातें गुणवत नाम जु धारी। जैसें नगर-तने है कोटा, तैसें व्रत-रक्षक ए मोटा ॥६३ क्षेत्रनि होय बाडि जो जैसे, पंचनिके ए तीनं तैसें।। अब सनि चउ शिक्षाव्रत मित्रा. जिन करि होवें अष्ट पवित्रा ॥६४ अष्टनिकों शिक्षा-दायक ए, ज्ञानमूल तप व्रत नायक ए। नवमो व्रत पहिलो शिक्षाव्रत, चित्त धीर धर धारहु अणुव्रत ॥६५ सामायिक है नाम जु ताको, धारन करत सुधीजन याका । सामायिक शिवदायक होई, या सम नाहि क्रिया निधि कोई ॥६६ दोहा प्रथम हि सातों शुद्धता, भासों श्रुत अनुसार । जिन करि सामायिक विमल, होय महा अविकार ॥६७ क्षेत्र काल आसन विनय, मन वच काय गनेह । सामायिककी शुद्धता, सात चित्त धरि लेहु ॥६८ जहां शब्द कलकल नहीं, बहु जनको न मिलाप । दंसादिक प्राणी नहीं, ता क्षेत्रे करि जाप ॥६९ क्षेत्र-शुद्धता इह कही, अब सुनि काल-विशुद्धि । प्रात दुपहरां सांझकों, करै सदा सद्बुद्धि ॥७० षट षट घटिका जो करें, सो उतकृष्टी रीति। चउ चउ घटिका मध्य है, करै शुद्धि धरि प्रीति ॥७१ द्व द्वै घटिका जघनि है, जेती थिरता होइ। तेती बेला योग्य है, या सम और न होइ ।।७२ धरै सुधी एकाग्रता, मन लावै जिन-माहिं । यहै शुद्धता कालको, समय उलंघे नाहिं ।।७३ तीजी आसन-शुद्धता, ताको सुनहु विचार । पल्यंकासन धारिकै, ध्यावै त्रिभुवन सारि ||७४ अथवा कायोत्सर्ग करि, सामायिक करतव्य । तजि इंद्रिय-व्यापार सहु, कै निश्चल जन भव्य ॥७५ विनय-शुद्धता है भया, चौथी जिनश्रुति माहिं । जिनवचनें एकाग्रता, और विकल्पा नाहिं ॥७६ हाथ जोड़ि आधीन है, शिर नवाय दे ढोक । तन मन करि दासा भयो, सुमरै प्रभु तजि शोक ।।७७ विनय समान न धर्म कोउ, सामायिकको मूल । अब सुन मनकी शुद्धता, द्वै व्रतसों अनुकूल ।।७८ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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