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श्रावकाचार-संग्रह जो अधिक जावेको भावा, मतीचार तीजो सु कहावा । चौथो क्षेत्रवृद्धि है दूषन, ताको त्याग करें व्रत भूषन ॥९४ जेती दूर जानका नेमा सो स्वक्षेत्र भार्षे श्रुति-प्रेमा। जो स्वक्षेत्रतें बाहिर ठौरा, सो परक्षेत्र कहावे औरा ॥९५ जो परक्षेत्र थको इह संधा, राखै सठमति हिरदे अंधा। ह्वातें क्रय विक्रय जो राखे, क्षेत्रवृद्धि दूषण गुरु भाखें ।।९६ पंचम अतीचारकों नामा, स्मृत्यंतर भासें श्रीरामा। ताको अर्थ सुनों मनलाई, करि परमाण भूलि जो जाई ॥९७ जानत और अजानत मूढ़ा, सो नहिं होई व्रत आरूढ़ा। ए पांचू दोषा जे ठारें, ते ब्रत निर्मल निश्चल धारें ॥९८ श्री कहिये निजज्ञान विभूती, शुद्ध चेतना निज अनुभूती । केवल सत्ता शुद्ध स्वभावा, आतमपरिणति-रहित विभावा ।।९९ ता परिणतिसों रमिया जोई, कर्म-रहित श्रीराम जु होई । तिनकी आज्ञारूप जु धर्मा, धारे ते नाशें सब भर्मा ।।८०० अब सुनि व्रत सातमों भाई, जो दूजो गुणव्रत कहाई । दिशा तणों कीयो परिमाणा, तामें देश प्रमाण बखाणा ॥१ देश नगर अर गाँव इत्यादी, अथवा पाटक हाट जु आदी। पाटक कहिये अर्ध जु ग्रामा, करै प्रमाण ब्रती गुण-धामा ॥२ जिन देशनि में धर्म ज नाहीं, जाय नहीं तिन देशनि माहीं। जब वह बहु देशनितें छूटे, तब यासों अति लोभ जु टूटे ॥३ बहु हिंसा आरंभ निवा, जीवदया मन माहिं प्रवा। दिश अरु देशनिको जु प्रमाणा, लोभ नाशने निमित्त बखाना ॥४ जिनवर मुनिवर अर जिन धामा, जिनप्रतिमा अर तीरथ ठामा । यात्राकाज गमन निरदोष, द्वीप अढाई लौं व्रत पोसा ।।५ अतीचार पाँचों तजि धीरा, जाकरि देश ब्रत ब धीरा । चित पसरन-रोकन के कारन, मन वच तन मरजादा धारन ॥६ कबहूं नाहिं उलंघि सु जाई, अर बातें आसा न धराई।। प्रेष्य नाम है सेवक को जी, ताहि पठावौ जो अधिको जी ॥७ वस्तु भेजिवो लोभ निमित्ता, प्रेष्य प्रयोग दोप है मित्ता। तातें जेतो देश जु राख्यौ, मृत्य भेजिवौ हां तक भाख्यौ ॥८ आगे वस्तु पठेवी नाहीं, इह बातें धागै उर माहीं। दूजो दोष आनयन त्यागे, तब हि ब्रत विधानहि लागै ॥९ परक्षत्र जु तें वस्तु मँगावै सा गुणब्रतको दूपण लावै। जो परमाण बाहिरा ठौरा, सो परक्षेत्र कहे वृषमौरा ॥१० तीजो दोष शब्दविनिपाता, ताको भेद सुनों तुम भ्राता। जाय नहीं परि शब्द सुनावै, सो निरदूषण ब्रत्त न पावै ॥११
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