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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
चौथा दूषण रूपनिपाता, रूप दिखावण जोगि न बाता । पंचम पुद्गलक्षेप कहावै, कंकर आदिक जोहि बगावै ॥१२
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भावार्थ - दिशा और देशको जावजीव नियम कियो छे, ताहूमें वर्ष छमासी दुमासी मासी पाखी नेम धार्यो छे, ती में भी निति नेम करे छे । सो निति नेम मरजादामें क्षेत्र निपट थोड़ा राख्यो सो गमन तो मरजादा बाहिर क्षेत्रमें न करै । परि हेलो मारि सवद सुनावै, अथवा जिह तरफ जिह प्रानीसों प्रयोजन होय तिह तरफ झांकि झरौकादिक में बंठि करि सिंह प्राणीनें आपनो रूप दिखाय प्रयोजन जणावें, अथवा कंकर इत्यादि बगाय पैलाने मतलब जताव सो अतीचार लगाय व्रतने मलीन करै ।
बेसरी छन्द
अब सुनि वरत आठमो भाई, तीजौ गुणव्रत अति सुखदाई । अनरथदण्ड पापको त्यागा, यह व्रत धारें ते बड़भागा ॥ १३ पंच भेद हैं अनरथदोषा, महापापके जानहु पोषा । पहला दुर्ध्यान जु दुखदाई, ताको भेद सुनों मन लाई ||१४ पर औगुण गहना उरमाहीं, परलक्ष्मी अभिलाष धराहीं । परनारी अवलोकन इच्छा, इन दोषनितें सुधी अनिच्छा ॥१५ कलह करावन करन जु चाहै, बहुरि अहेरा करन उमाहे । हारि जीति चितवे काहूका, करै नहीं भक्ति जु साहूकी ||१६ चौर्यादिक चितवे मनमाहीं, सो दुरगति पावे शक नाहीं । दूजौ पापतनों उपदेशा, सो अनरथ तजि भजौ जिनेशा ॥१७ कृषि पशु धन्धा वणिज इत्यादी, पुरुष नारि संजोग करा दी । मंत्र यंत्र तन्त्रादिक सर्वा, तजी पापकर वचन सगर्वा ॥१८ सिंगारादिक लिखन लिखावन, राज-काज उपदेश बतावन । सिलपि करम आदिक उपदेशा, तजो पाप कारिज आदेशा ॥ १९ तजहू अनरथ विफला चर्या, सो त्यागौ श्री गुरुने बर्ज्या । भूमि खनन अरु पानी ढारन, अगनि-प्रजालन पवन - विलोरन ॥२० वनस्पती छेदन जो करनों, सो विफला चर्याकों धरनों । हरित तृणांकुर दल फल फूला, इनको छेदन अघको मूला ॥२१ अब सुनि चौथी अनरथदण्डा, जा करि पावौ कुगति प्रचण्डा । हिंसादान नाम है जाको, त्याग करो तुम बुधजन ताको ॥२२ दयादान करिवा जु निरन्तर, इह बार्ता धारी उर अन्तर । छुरो कटारी खडगरु भाला, जूती आदिक देहि न लाला ॥२३ विष नहि देवा अर्गानि न देनी, हल फाल्यादिक दे नहि जैनी । धनुष बान नहि देनों काकों, जो दे अघ लागे अति ताकों ॥ २४ हिंसाकारक जेती वस्तु, सो देवी तो नाहिँ प्रसस्तु । वध बन्धन छेदन उपकरणा, तिनको दान दयाको हरणा ||२५
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