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दौलतराम-कृत क्रियाकोष पर रस तजि जिनरस गहै, जाके राग न रोष । सो पावै समभावकों, दूरि करै सहु दोष ॥९५ रसपरित्याग समान नहिं, दूजो तप जगमांहि । जहां जीभके स्वाद सहु, त्यागै संशय नाहिं ।।१६ अब विविक्तशय्यासना, पंचम तप सुनि वीर । राग द्वेषके हेतु जे, आसन सज्जा चीर ॥९७ तजि मुनिवर निरग्रन्थ ह्व, वसे आपमें धीर । तन खीणां मन उनमना, जगतरूढ़ गंभीर ॥९८ पूजा हमरी होयगी, बहुत भजेंगे लोक । इह बांछा नहिं चित्तमें, नहीं हरष अर शोक ॥९९ सकल कामना-रहित जे, ते साधू शिवमूल। पापथको प्रतिकूल ह्व, भये व्रह्म अनुकूल ॥१४०० ते संसार शरीर अरु, भोगथकी जु उदास । अभ्यंतर निज बोध घर, तप कुशला जिनदास ॥१ उपशमशीला शांतधी, महासत्त्व परवीन । निवसे निर्जन वनविणे, ध्यान लीन तन खीन ॥२ गिरिसिर गुफा मंझार जे, अथवा बसें मसान । भूमिमाहिं निरव्याकुला, धीर वीर बहु जान ॥३ तरुकोटर सूना घरी, नदी-तीर निवसंत । कर्म-क्षपावन उद्यमी, ते जैनी मतिवंत ॥४ कंकरीली धरतीवि, विषम भूमिमें साध । तिष्ठं ध्या तत्त्वकों, आराधन आराधि ॥५ जगवासिनको संगती, ध्यान-विघनको मूल। तार्ते तजि जड़ मंगतो, भये ज्ञान अनुकूल ॥६ स्त्री-पशु-बाल-विमूढ़की, संगति अति दुखदाय । कायरकी संगति थकी, सूरापन विनसाय ॥७ जे एकांत वसे सुधी, अनेकांत घरि चित्त । ते पावै परमेसुरो, लहि रतनत्रय चित्त ॥८ मुनिकी रोति कही भया, सुनि श्रावकको रीति । जा विधि पंचम तप करे, धरि जिन वचन प्रतीत ॥९ निज नारीहूते विरत, परनारीका वीर । शीलवान शांतिक अती, तप घारे अति धीर ॥१. परनारीको सेज अर, आसन चोर इत्यादि। कबहुं न भीटे भव्य जो, तजे काम रागादि ॥११ निज नारीहूकों तजे, जौलग त्याग न होय । तोलग कवहंक सेवही, बहुत राग नहिं कोय ॥१२
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