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श्रावकाचार-संग्रह पाल्यो जैन वचन जिन धीर, सर्व जीवकी मेटी पोर । छट्टी प्रतिमा धारक सोई, दिवस नारिको परस न होई ॥३४ रात्रि विर्षे अनसन व्रत धरै, चउ अहारकों है परिहरै। गमनागमन तजै निशि माहि. मन वच तन दिन शील धाराहिं ॥३५ ए पहलीसों छट्टी लगें, जघन्य श्रावकके व्रत जगें। पतिव्रता व्रतवन्ती नारी, मध्यम पात्र जघन्य विचारी ॥३६ श्रावक और श्राविका जेह, घरवारी व्रतचारी तेह । मध्यम पात्तर कहे जघन्य, इनकी सेव करे सो अन्य ॥३७ वस्त्राभरण अन्न जल आदि, थान मान औषध धानादि । देनें श्रुत सिद्धांत जु वीर, हरनी तिनकी सबही पीर ॥३८ अभय दान देवो गुणवान, करनी भगति कहें भगवान । भवजल के द्रोहण ए पात्र, पार उतारें दरसन मात्र ॥३९
दोहा सप्तम प्रतिमा धारका, ब्रह्मचर्य व्रत धार । नारीकों नागिनि गिनें, लख्यौ तत्त्व अविकार ॥४० मन वच तन करि शीलधर, कृत कारित अनुमोद । निज नारीहूकू तजै, पावै परम प्रमोद ॥४१ जेसे ग्यारम दशम नव, अष्टम पड़िमाधार । मन वच तन करि शील धरि, तैसे ए अविकार ॥४२ तिनतें एतो आंतरो, ते आरंभ वितीत । इनके अलपारंभ है, क्रोध लोभ छल जीत ४३ लख्यो आपनों तत्व जिन. नाहिं मायासों मोह । तजै राग दोषादि सब, काम क्रोध पर द्रोह ॥४४ कछ इक धनको लेस है, ताते घरमें वास । जे इनकी सेवा करें, ते पावे सुखरास ॥४५
चाल छन्द अब सुनि अष्टम पडिमा ए, त्रस थावर जीवदया ए। कछु हि धंधा नहिं करनों, आरंभ सबै परिहरनों ॥४६ भजनों जिनकों जगदीसा, तजनों जगजाल गरीसा। तनसों तहिं स्वामित धरनों, हिंसासों अतिही डरनों ॥४७ श्रावकके भोजन करई, नवमी सम चेष्टा धरई । नवमीतें एतो अंतर, ए हैं कछुयक परिग्रह-धर ॥४८ वन माहीं थोरो रहनों, शीतोष्ण जु थोरो सहनों । जे नवमी मडिमावंता, जगके त्यागी विकसंता ॥४९ जिन धातु मात्र सब नांखे, कपड़ा कछुयक ही राखे । श्रावकके भोजन भाई, नहिं माया मोह धराई ॥५०
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