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पदम-कृत श्रावकाचार त्रिवली भंग अंग जे करि ए, सुण सुन्दरे, भाले रेख त्रिवली तेह, मालंतडा. हस्ते स्पर्श संकोचे अंग ए, सुण सुन्दरे, वंदना दोष संकुचित, मालंतडा० ॥८५ संघ सह देखी भणि ए, सुण सुन्दरे, बाह्य पणे दोष दृष्ट, मालंतडा० . सहि गुरु थो उलवी भणे ए, सुण सुन्दरे, पृष्ठतो वंदना अदृष्ट, मालंतडा० ॥८६ संघ रंजि भक्ति वांछिए, सुण सुन्दरे, संघकर मोचन तेह, मालंतडा. पर थी द्रव्य णामी भणे ए, सुण सुन्दरे, आलब्ध नामें दोष एह, मालंतडा० ॥८७ लोभे द्रव्य वांछे पर तणो ए, सुण सुन्दरे, ते अनालब्ध दोष नाम, मालंतडा. अर्थ व्यंजन काल होण भणे ए, सुण सुन्दरे, ते हीन दोष उद्दाम, मालंतडा० ॥८८ घुघुर नादें मोटे शब्द भणे ए, सुण सुन्दरे, दर्दुर दोष ते होइ, मालंतडा. पंचम रागें पर क्षोभ करे ए, सुण सुन्दरे, धूललित दोष इम जोइ, मालंतडा० ॥८९ इणि परें वत्रीस दोष ए, सुण सुन्दरे, संक्षेपें कह्यो विचार, मालंतडा० विस्तार आगमें जाण जो ए, सुण सुन्दरे, हूँ नर अल्पमति घार, मालं तडा० ॥९. दोष वत्रीस दूरे करी ए, सुण सुन्दरे, परिहरि सयल अतिचार, मालंतडा. मन वच काया दृढ करी ए, सुण सुन्दरे, धरिये सामायिक सार, मालतडा० ॥९१ सदोष वन्दना जु कीजिये ए. सुण सुन्दरे, तो नो होइ पुण्य लगार, मालंतडा० केवल काय कष्टकारी ए, सुण सुन्दरे, श्रम तणो लाहे भार, मालंतडा० ॥९२ इम जाणि दोष परिहरी ए, सुण सुन्दरे, धरों समता भवतार, मालंतडा० अखंड आवश्यक पालिये ए, सुण सुन्दरे, टालिये दुःख संसार, मालंतडा०॥९३ कायोत्सर्गे वंदना जे करे ए, सुण सुन्दरे, तेहनां दोष बत्रीस, मालंतडा. जे जिन आगम जाणज्यो ए, सुण सुन्दरे, घोटक आदें निर्देश, मालंतडा० ॥९४ चहुं अंगुल तणें अंतरे ए, सुण सुन्दरे, भू पीठ धरी दोय पाय, मालंतडा. जानु लगें लंब हस्त ए, सुण सुन्दरे, निश्चल करी निज काय, मालतडा० ॥९५ विहु पासें पूठि मस्तकि ए, सुण सुन्दरे, अडकीये किसे नहीं आणि, मालंतडा० स्वनेत्र संज्ञा किसी ए, सुण सुन्दरे, मौन धरी निज वाणि, मालंतडा० ॥९६ इणि परे पाठ जे भणी ए, सुण सुन्दरे, लेइ कायोत्सर्ग गुणधार, मालंतडा. इम दोष कोइ नहीं होइ ए, सुण सुन्दरे, जो रहे शास्त्र अनुसार, मालंतडा० ॥९७ सदा सामायिक कीजिये ए, सुण सुन्दरे, निज शक्ति लेइ कायोत्सर्ग, मालंतडा. सुर नर वर सुख भोगवीइ ए, सुण सुन्दरे, इणि परे होइ अपवर्ग, मालंतडा० ॥९८ जिम जिम समता कोजीइ ए, सुण सुन्दरे, तिम तिम दुःकर्म हाणि, मालंतडा० पुण्य घj वली पजे ए, सुण सुन्दरे, पुण्ये स्वर्ग सुख खाणि, मालंतडा० ॥९९ यती अथवा गृहस्थ पणे ए, सुण सुन्दरे, समता परि घड़ी दोय, मालंतडा. मनवांछित सुख ते लहे ए, सुण सुन्दरे, समता तोले नहीं कोय, मालतडा० ॥१००
वस्तु छन्द धरो सामायिक, धरो सामायिक भविजन भावे करी । मन वचन काया दृढ़ पणे, करे सामायिक सार निर्मल, इन्द्र नरेन्द्र पद पायिनें, अनुक्रमें सुख देइ ते अविचल ।
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