________________
पदैम-कृत श्रीवकाचार
द्विधा धर्म कियो परकाश, द्रव्य पदारथ तत्त्व निवास । षद्रव्य पंचासतिकाय, जुजुआ लक्षण गुण पर्याय ॥२९ लोकालोक तणु स्वरूप, त्रिकाल गोचर रूप अरूप । श्री जिनवाणी सूर्य समान, टाले मोह तिमिर अज्ञान ॥३० धर्म हस्त अवलंब आपिया, स्वर्ग मोक्ष पद भवि थापिया। महाव्रत अणुव्रत समकित सार, निजशक्ति मिलिया भवतार ||३? धर्म सुणी आणंद्यो राय, वली प्रणमी श्री जिनवर पाय । गौतम गणधर वली वंदिया, धर्म वृद्धि सहुनें दिया ॥३२ कर-पद्म जोडी वीनवे ते भूप, गौतम स्वामी नुगुण-कूप । गृहस्थ धर्म तणों विस्तार, विधी सहित कहो श्रावक आचार ॥३३ मति श्रुत अवधि मनः परियय ज्ञान, सप्त रिद्धि जाणों निधान । गणपति कहे सावधाने सुणों, सप्तम अंगमाहे जिन भणो ॥३४ द्विविध धर्म तणी न हि आदि, सदाकाल सास्वतो अनादि । भूत भावि छि अनें वर्तमान, त्रिलोक्य माहि दीपे जिम भांन ।।३५ द्वादश अंग कहीइ श्रुत ज्ञान, सातमा उपासकाध्ययन अभिधाम । उपासक व्रत तणो विचार, बहुविध कहं ते अंगमझार ॥३६ श्रावक अंग तणो सुणो मान, जे जिम कहीउ श्री वर्धमान । लक्ष एकादश पद परिमाण, सत्तरि सहस्र अधिक सू जाण ।।३७ तिन अक्षर पद एक ज तणा, सोलसे चौत्रीस कोडि तस भणा । असी लक्ष सप्त सहस्र कही, आठ से अठयासी अक्षर सही ॥३८ बत्तीस अक्षर तणा सलोक, संख्या केती कहि कोविद लोक । कोडि एकावन अधिक अष्ट लक्ष, सहस्र चौरासी ते समक्ष ॥३९ छै से अधिका साढा एकवीस, श्लोक संख्या कहि जगदीश । धर्म धर्म सहु को जिन कहे, धर्म भेद ते विरला लहे ॥४० कनक जेम चहविध परखीय. छेद भेद कष ताप निरखीय । चहुं गति मांहि पामे जीव दुक्ख, धर्म विना कले न हिं कांई सुक्ख ॥४१ अघोगति पड़ता जे उद्धरे, सार्थक नाम धर्म शिव करे । श्रावक ते जे समकित धरे, ज्ञान-सहित निज तप जे करे ॥४२ दया-सहित व्रत पाले सार, भावसहित दान दे चार।
"||४३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org