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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष व्युत्सर्ग खडा होय ध्यान धरिवे को नाम ध्यान निब बातमीक गुण निरखोजिये। वाहिल अभ्यन्तर के तप भेद जानि पालि अनुक्रमनि यात गुणथानक चढ़ीजिये ॥५
दोहा द्वादश तप वरनन कियो, जिनवर भाष्यो जेम । कछु विशेष सम भावको, कहूं यथा मति तेम ॥६
इति द्वादश तपः ।
अथ सम भाव कथन । सवैया अनंतानबंधी क्रोध पाषाण की रेखा सम, मान थंभ पाहन समान दुख दाय है। बंस विडावत माया, लोभ-लाख रंग जांनि, इनके उदंते जीव नरक लहाय है। जब लग अनंतानुबंधी चौकड़ीकों घरै जनम पर्यंत जाको संग न तवाय है। याके जोर सेती जीव दर्शन सुधताको लहै नांही ऐसें जिनराज जी बताय है ।।७ क्रोध जो अप्रत्याख्यान हल रेखावत जानि मान स्थिथंभ मानि दुष्टता गहाय है, माया बजा शृंग जानि लोभ है मजीठ रंग इनके उदत जीव तिरयंच थाय है। जव ही अप्रत्याख्यान चौकड़ी को उद होय जाकै एक बरस लों थिरता रहाय है, तो लो याको वल जोलों श्रावक के व्रतनिकों घर सके नांहि जिनराज जी बताय है ।।८ प्रत्याख्यान क्रोध धूलि रेखा परमान कहो, मान काठ थंभ माया गोमूत्र समान हैं, लोभ कसुम्भको रंग ए ई चार यो प्रत्याख्यान, इनके उदैते पावं मनुज पद थान है। प्रत्याख्यान कपाय प्रगट उद होत संदै च्यारि मास परजंत रहै जानो बान है, याही को विपाक सो न सकति प्रकट होत मुनि राज ब्रत धरि सके न प्रमान है ॥९ संज्वलन क्रोध बल रेखावत कहो जिन, मान बेतलता किसी नवनि प्रधान है, माया है चमर जैसी लोभ हरदी को रंग इनके उदते पावै सुरग विमान है।
चौथोह कषाय चौकरी को उदै पाय ताके च्यार पक्ष ताऊ बाके प्रबल महान हैं, यथास्यात चारित्र कों वरि सकै नाहि मुनि तीर्थकर गोत्रहू जो बांधे यो बखान है॥१.
चौपाई सोलह कषाय चोकरी च्यार, नो कषाय नव नाम विचार । हासि बरति रति सोक बखान, भय जुगुप्सा ए षट् बान ॥११ वनिता पुरुष नपुंसक वेद, ए नव मिले पचीस जू मेद। इनको उपसम करिहै जबे, समकित हियै सुभ किरिया तबै ॥१२
इति समभाव संपूर्ण।
अथ एकादश प्रतिमा वर्णन लिख्यते । चौपाई अब एकादश प्रतिमा सार, जुदो जुदो तिनको निरधार। सो भाष्यो आगम परवान, सुनि चित पारो मरम सुजान ॥१३
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