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________________ श्रावकाचार-संग्रह ताके दोय भेद हैं भया, क्षुल्लक ऐलिक श्रावक लया । क्षुल्लक खण्डित कपड़ा धरै, अरु कमण्डल पीछी आदरै ॥२ इक कोपीन कणगतो गहै, और कछु नहिं परिग्रह चहै। जिनशासनको दासा होय, क्षुल्लक ब्रह्मचारि है सोय ॥३ ऐलि धरे कोपीन हि मात्र, अर इक शोचतनूं है पात्र । कोमल पीछी दया निमित्त, जिनवानीको पाठ पवित्त ॥४ पंच घरनिमें एक घरेहि, भोजन मुनिकी भांति करेहि । ये है चिदानन्दमैं लोन, धर्मध्यानके पात्र प्रवीन ॥५ क्षुल्लक जीमें पात्र मंझार, ऐलि करें करपात्र अहार । मुनिवर ऊभा लेय अहार, ऐलि अर्यिका बैठा सार ॥६ क्षुल्लक कतरावै निज केश, ऐलि करें शिरलोंच अशेष । पहली पडिमा आदि ज लेय, क्षुल्लकलों व्रत सबकू देय ॥७ श्रीगुरु तीन वर्ण बिन कदे, नहिं मुनि ऐलितने व्रत दे । पहलीसों छट्ठीलों जेहि, जघन्य श्रावक जानों तेहि ॥८ सप्तमि अष्टमि नवमी धार, मध्य सरावक है अविकार । दशमी एकादशमीवन्त, उतकृष्ट भाषे भगवन्त ॥९ तिनहूमें ऐलि जु निरधार, ऐलिथको मुनि बड़े विचार । मनिगगमें गणधर हैं बड़े, ते जिनवरके सनमुख खड़े ॥१० जिनपति शुद्धरूप हैं भया, सिद्ध परें नहिं दूजो लया। सिद्ध मनुज बिन और न होय, चहुंगतिमै नहिं नर सम कोय ॥११ नरमें सम्यकदृष्टी नरा, तिनतें वर श्रावक व्रत धरा। षोडश स्वर्गलोकलों जाहिं, अनुक्रम मोक्षपुरी पहुंचाहिं ॥१२ पंचमठाणे ग्यारा भेद, धारे तेहि करें अघछेद । इह श्रावककी रीति जु कही, निकट भव्य जीवनिनें गही ॥१३ ऊपरि ऊपरि चढ़ते भाव, विरकतभाव अधिक ठहराव । नींव होय मन्दिरके यथा, सर्व व्रतनिके सम्यक तथा ॥१४ अथ दान वर्णन । दोहा प्रतिमा ग्याराको कथन, जिन आज्ञा परवान । परिपूरण की भया, अब सुनि दान बखान ॥१५ कियो दान वरणन प्रथम, अतिथिविभाग के माहिं । अबहू दान प्रबन्ध कछु, कहिहौं दूषण नाहिं ॥१६ मनोहर छन्द ए मूढ़ अचेतो कछु इक चेतो, आखिर जगमें मरना है। धन रह ही इहां हो संग न जाहीं, तार्ते दान सु करना है ।।१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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