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श्रावकाचार संग्रह
खोडो दुक पायन पांगली, कुबज गूगौ वचन तोतलो । जाके मेद गाठि तनि घणो, ताकौं पूजा करत न वणी ॥५८ काछ दाद पुनि कोड़ी होइ, दाग-सुपेद सरीरहि जोइ । मंडल फोड़ा पाव अदीठ, अर जाकी बाकी है पीठि ॥५९ गोसो वधै आंत नीकलै, ताको पूजा विधि नहिं पलै । होइ भगंदर कानि न सुणे, सून्य पिंड गहलो वच सुणें ॥६० खयनी ऊर्द्धस्वास ढ जास, सरै नासिका श्लेषम तास । महा सुस्त चाल्यौ नहिं जाय, पूजा तिनहि जोग नहिं थाय ॥६१ द्यूत विसन जाके अधिकार, अर आमिष-लंपट चंडार । सुरा-पान तें कबहु न हटै, सो पापी पूजा नहि थटै ॥६२ वेश्या रमहै लगनि लगाय, अवर अहेडा सौ न अधाय । चोरी करै रमै पर-नारि, पूजा जोगि नहीं हिय धारि ॥६३
दोहा
इत्यादिक पापी जिके, तिनको नरक नजीक । वह पूजा कैसे करै, परी कुगति की लीक ॥६४ जो जिन पूजक पुरुष है, ते दुरगति नहिं जाय । तिनकी मूरति सबनि कों, लागै अति सुखदाय ॥६५
चालछन्द जिन पूजा तै कै इंद्र, ताको सेवै सुर वृंद । अरु चक्री पद को पावै, षट खंडहि आणि फिरावै ॥६६ धरणेदर है पद जीको, स्वामी दश भुवनपती को। हरि प्रति हरि पदई थई, जलभद्र मदन मुसकाय ॥६७ पूजा फल को नाहि पार, अनुक्रम हो तीर्थंकर सार । पदवी पावै सिव जाइ, किसनेस नमै सिर नाइ ॥६८
छप्पय छन्द दोष अठारह रहित तीस चउ अतिसय मंडित, प्रातिहार्य यत आठ चतुष्टय च्यारि अखंडित । समवशरण विभवादिरूढ त्रिभुवन पति नायक, भविजन कमल प्रकास करन दिनकर सुखदायक । देवाधिदेव अरहंत मुझ भगति-तणौं भव-भय हरी, जयवंत सदा तिहुँ लोक में सकल संघ मंगल करो ॥६९ अठाईस गुण मूल लाख चौरासी उत्तर धरै, कर तप घोर सुद्ध आतम अनुभो परै। ग्रीषम पावस सीत सहे बाईस परीसहि, भवि भावहि शिवपंथ ज्ञान द्रग चरण गसीरहि ।
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