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________________ किशनसिंह-कृत क्रियाकोष करिन ते फिरियो सिर ऊपर, वसन हीण मलोन नहीं धरै। कटि तले परस जय अंग ही, दरवसे जिन पूजन लो गही ॥४ बहु जनां करतें कर संचस्यों, मनज दुष्टनि भीटि कर धर्यो । असन दुखित दर्व सवै तजौ, भगति तं जिन पूज सदा सजो ॥४५ दोहा असन पहरि भोजन करै, सो जिन पूजा मांहि । तनु धारे अघ ऊपजे, यामैं संशय नाहिं ।।४६ कुंडलिया छन्द कबहु संधिही वसन तें, भगति वंत तन होइ। मन वचन तन निहचै इहै, पूजा करै न सोइ । पूजा करै न सोइ, दगध फटियो है जाते । पहरयो अवर नितणौ, कटिहि वंधियो पुनि तातॆ ॥ करी वृद्ध लघु नीति, धारि सेई तिय जबही। करहि नाहि भवि सेव, वसन संधिततै कबही ॥४७ चौपाई जो भविजन जिन पूजा रच, प्रतिमा परसि पखालहिं सर्च । मौन सहित मुख कपडो करै, विनय विवेक हरष चित धरै ॥४८ पूजा की विधि ऊपर कही, करिव पुण्य ऊपजै सही। नर को करवो पूजा जथा, आगम में भाषी सरवथा ॥४९ जिन पूजा वनिता जो करै, सो ऐसी विधि को अनुसरै । प्रतिमा-भीटण नाही जोग, ऐसें कहे सयाणे लोग ॥५० स्नान क्रिया करिके थिर होइ, धौत वसन पहरै तनि सोइ । बिना कंचुकी सो नहिं रहै, पूजा करै जिनागम कहै ॥५१ बड़ी साखि मैना सुन्दरी, कुष्ट व्याधि पति-तनुकी हरी । लै गंधोदक सींची देह, सुवरण वरण भयो गुण-गेह ॥५२ अनंतमती उविल्या जाणि, रेवतीय चेलना बखानि । मदनसुंदरी आदिक घणी, तिन कोनी पूजा जिन-तणी ॥५३ लिंग नपुसक धारी जेह, जिनवर पूजा करिहै तेह। प्रतिमा-परसण को निरधार, अथनि मैं सुणि लेहु विचार ॥५४ नर वनिता रु नपुसक तीन, पूजा-करण कही विधि लोन । अब जिनिकौं पूजा सरवथा, करण जोगि भाषी नहिं जथा ॥५५ औढेरो काणो भणि अंध, फूलोधूधि जाति चखि बंध । प्रतिमा-अवयव सूझे नहीं, जाको पूजा करन न कही ॥५६ नासा कान कटी अंगुरी, हुई अगनि दाझे वांकुरी। षट् अंगुलिया कर अरुपाय, पूजा करणी जोगि न थाय ॥५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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