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श्रावकाचार संग्रह
चौपाई पूरव उत्तर दिसि सुखकार, पूजक पुरुष करै सुख सार । जिन प्रतिमा पूरव जो होइ, पूजक उत्तर दिसि कों जोइ ।।२८ जो उत्तर प्रतिमा मुख ठाणि, तो पूरव मुख सेवक ठाणि । श्री जिन चैत गेह मै एम, करै भविक पूजा धरि येम ॥२९ निज मंदिर में प्रतिमाधाम, करै तास विधि सुनि अभिराम । घर मांहे पौलि प्रवेश करत, वाम भाग दिसि स्वयं महंत ॥३० मंदिर उपलेखणको मही, ऊँचो हाथ जोड़ कर सही। जिन प्रतिमा पदरावन गेह, परम विचित्र करै धरि नेह ॥३१ प्रतिमा मुख पूरव दिसि करै, अथवा उत्तर दिसि मुख धरै। पूजक तिलक रचै नव जाणि, सो सुनि बुधजन कहूँ बखान ॥३२ सीस सिखादिक करिए एह, दूजो तिलक ललाट करेह । कंठ तीसरो चौथो हिए, कांनि पांचमो ही जानिए ॥३३ छठो भुजा कुखि सातवों, अष्टम हाथि नाभि परि नवों। एह तिलक नव ठामि बनाय, अरु गहनो तरु विविध बनाय ॥३४ मुकुट सीस परि धारै सोय, कंठ जनेउ पहिरै सोय । भुज वाजूहि विराजत कर, कुंडल कानह कंकण धरै ॥३५ कटि-सूत्र रु कटि-मेखल धरै, क्षुद्र घंटिका सबदहि करै। रतन जड़ित सुवरण मय जाणि, दस अंगुलनि मुद्रिका ठाणि ॥३६ पाय साकला धुंघुरु धरै, मधुर शब्द बाजे मन हरै। भूषण भूषित करिवि शरीर, पूजा आरम्भ वर वीर ॥३७
पढड़ी छन्द पूर्वादिक पूजा जो करेइ, वसु दरव मनोहर करि धरेइ । मध्याह्न पूज समए सु एह, मनु हरण कुसुम बहु पेखि देह ।।३८ अपराह्न भविक जन करिह एव, दीपहि चढ़ाय बहु धूप खेव । इहि विधि पूजा करि तीन काल, शुभ कंठ उचारिय जयह माल ॥३९ जिन वाम अंगि धरि धूप दाह, खेवे सुगंध सुभ अगर ताह । अरहंत दक्षिणा दिसि जु एह, अति ही मनोज्ञ दीपक धरेहु ॥४० जप ध्यान धरै अति मन लगाय, जिन दक्षिण दिसि मौन लाइ। प्रतिमा वंदन मन वचन काय, करि दक्षिण भुज दिसि सीस नाय ॥४१ इह भाँति करिय पूजा प्रवीण, उपजै बहु पुन्य रु पाप क्षीण । पूजा माहे नहिं जोगि दर्व, तिनि नाम बखानै सुनहु सर्व ॥४२
द्रुत विलंबित छन्द प्रथम ही पृथ्वी परि जो धर्यो, अरु कदा करतें खिसि के पर्यो । जुगल पायनि लागि गयो जदा, दरवसे जिन-पूजन ना वदा ॥४३
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