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________________ २०७ किशनसिंह-कृत क्रियाकोष निज तिरहि भविन तारहिं सदा इहै विरद तिन पे खरी, ऐसे मुनीश जयवंत जग सकल संघ मंगल करी ॥७. तीर्थकर मुख थकी दिव्य ध्वनि ते जितवाणी, स्याद्वादमय खिरी सप्त-भंगी सुखदानी। ताको लहि परसाद गए शिवथानक मुनिवर, अज हो याहि सहाय पाप तिरिहै भवि धरि उर। तसु रचिय देव गणधरनि जो द्वादशांग विधि श्रुतधरी, भारती जगत जयवंत निति सकल संघ मंगल करी ॥७१ अथ श्री चैत्यालयजी में ए चौरासी काम कोबे तो बासावना लागे तिस को कवन प्रत्येक होनेछ दोहा श्री जिन श्रुत गुरु कों नमों, त्रिविधि शुद्धता ठानि । चौरासी यासादना, कहूं प्रत्येक बखान ।।७२ श्री जिन चैत्यालय विर्षे, क्रिया हीण है जेह । कीयै पाप अति ऊपजे, ते सुणि भवि जिन देह ७३ चालछन्द मुखत खंखार निकारे, हास्यादि केलि विसतारै । पुनि विविध कला चु बणावे, पाश्यादिक नृत्य करावे ॥७४ अरु कलह करे रिसधारी, खेहै तंबोल सुपारी। जल पीवै कुरला डारे, पंखा तें पवन हिडारै ॥७५ गारी वच हीण उचरिहें, मल मूत्र वावनहि सरिहे। कर पद धोवै अरु न्हावे, सिर डाढी कच उतरावै ॥७६ कर पगके नख ही लिवावे, कारी ते रुधिर कढावै । औषध वणवावै खांही, नांख पसेव उतरांही ॥७७ तनु वण की तुचा उतरावे, कर वमन कफादिक डारे। दांतिण पुनि सिलक करांहीं, हालं दंतन उपराही ।।७८ बांधे चौपद तनधार, पुनि करिहै जहाँ आहार। आंखन के गीडहि डारे, कर पग नख मैलि उतारे | जह कंठ कान सिर जांनी, नासा को मैल डरांनी। जो वस्तु-शरीर की थाय, बाँटे निज थानक जाय ॥८० मित्रादिक समधी कोळ, मिलि जांहि जिनालय दोऊ । ठंडे मिलि भेंटवि देही, पुनि हरष चित्त धरि लेई ॥८१ परधान जु भूपति केरे, वय गुरु धनवान घनेरे। आए उठि करि सन मानी, इह दोष बड़ी इक बानी ॥८२ पुनि ब्याह करन की बात, मिलि के वह बन वठलात । जिन श्रुत गुरु चरन चढावे, ताको भंडार रखावै ॥८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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