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पदेम-कृत श्रीवकाचरं
आरंभ थी ए उपजे पाप, वंचन द्रोह छद्म घणु ए ।
असत्य ए हुइ अन्याय, व्यापार त्यजो ते द्रव्य तणो ए ॥१३ कंटोल ए धातुड़ी पान, साबु मैण महुडा गली ए । विष लोह कु काष्ट ढोर अस्थि चरम वली ए ॥१४ मद्यमांस ए मधु कुचीड़, माखण न वि तवावीइ ए । कण सलए कवण व्यापार, घाणी न वि कराविइ ए ।।१५ वापी कूप ए द्रह तडाग, खाई न वि खणावीह ए । कपावीइ ए नहि वन काष्ट, अंगष्टिनीमा न चडवाइ ए ॥ १६ एह आदि दुर्व्यापार, पाप आरंभ उपजे बहू ए ।
लाभ न दीसै ए मूल विनास, ते वाणिज्य त्यजो सहु ए ॥१७ उपजि ए कष्टे द्रव्य, व्यापार करे ते अति बलो ए ।
कुटुम्ब ए लेवते भोग, नरके जाद्र तू एकलो ए ॥१८ इम जाणीय दुर्व्यापार, पापारंभ ते परिहरो ए । हितमित ए न्याय सम्बन्ध, जोग्य वाणिज्य ते अनुसरो ए ।।१९
खंडण पीसण चुल्ली, जल स्थान ऊपर कहीइ ए. 1
देरासर ए समन ऊपर, चन्द्रोपक बांधो सहीइ ए || २०
षट् कर्म ए जन सहित, सदा कीजे त्रस-रक्षण ए । जो कीजे ए जीव बहु जत्न, ते अहिंसा व्रत- रक्षण ए ॥२१ चालीइ ए जन-सहिंत, जीव जत्न करि वेसीइ ए । सोइए ए जन सहित, जीभ जत्न करि भासीइ ए ॥ २२ जीव जत्न ए करे आरम्भ, अल्प पाप हुए तस ए । कोमल ए कीजे परिणाम, परिणामें पुण्य जस ए ॥ २३ इम जाणिय ए आसन्न भव्य, सर्वदा जीव जत्न करो ए । जीव जत्ने ए उपजे पुण्य, पुण्य फल स्वर्गे संचरे ए ॥२४ आपीए ए भार सोवर्ण मेरू सहित वसुन्धरा ए । जीव एक ए दीजिइ दान, ते सम नहीं कोई गुणधणी ए ॥ २५ वल्लभ ए एणि संसार, जीवितव्य विना अवर नहीं ए । ते भणी ए जीव दया दान, जिम किम दीजे सही ए ॥ २६ आपण ने ए जो जीववु इष्ट, सो परनें जीववुं वल्लभ ए । तो किम ए लीजे पर प्राण, जीव जत्न करो दुर्लभ ए ॥ २७ दया विण ए नहीं जिन पूज, पात्र दान नहीं दया विन ए । तप जप ए ध्यान अध्ययन, दया विण नहीं कोई गुण ए ॥ २८ देव मांहि ए जिम जिनदेव, ज्ञान मांहे केवल ज्ञान ए । रत्न मांहि ए जिम चिन्तारत्न, तिम दान मांहे जीव दया ए ॥२९ जीव दया ए हे बहु आयु, काय निरोग रूप घणुं ए । पामीइ ए सुख संजोग, भोग वांछित निज भलपणुं ए ॥ ३०
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